दिनांक
12 नवम्बर 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्न
सार:
01-भगवान!
तुम
अभी थे यहां, तुम
अभी थे यहां।
तुम्हारी
सांसों की गंध
इन हवाओं में
है।
प्यारे
कदमों की आहट फिजाओं
में है।
तुम्हें
देखा किए ये जमीं—आसमां
तुम
अभी थे यहां, तुम
अभी थे यहां।
तुम्हें
देखा तो
सांसें रुकी
ही रहीं
मेरे
मालिक! ये
आंखें झुकीं
ही नहीं,
होश
आते ही तुम
छुप गए हो
कहां!
तुम
अभी थे यहां, तुम
अभी थे यहां।
02-भगवान!
संसार
में मुझे
बुराई ही
बुराई क्यों
दिखायी देती
है?
पहला
प्रश्न :
भगवान,
तुम
अभी थे यहां, तुम
अभी थे यहां।
तुम्हारी
सांसों की गंध
इन हवाओं में
है।
प्यारे
कदमों की आहट फिजाओं
में है।
तुम्हें
देखा किए ये जमीं—आसमां
तुम
अभी थे यहां, तुम
अभी थे यहां।
तुम्हें
देखा तो
सांसें रुकी
ही रहीं
मेरे
मालिक! ये
आंखें झुकीं
ही नहीं,
होश
आते ही तुम
छुप गए हो
कहां!
तुम
अभी थे यहां, तुम
अभी थे यहां।
मीरा!
परमात्मा को
जानना हो, पाना
हो, तो एक
बहुत
विरोधाभासी
होश को
संभालना होता
है।
विरोधाभासी
इसलिए कि एक
तरफ से वह होश
है और दूसरी
तरफ से बेहोशी
भी। एक ऐसी
अलमस्ती, एक
ऐसी मदमस्ती,
जो
मूर्च्छा
नहीं है, जो
जागरण है।
जिसमें भीतर
एक ध्यान का दीया
जल रहा है।
जिसमें होश की
ज्योति है।
प्रेम
विरोधाभास की
इस कला को
जानता है।
प्रेम ही कुंजी
है उसके द्वार
पर लगे ताले
को खोल लेने की।
प्रेम जानता
है कैसे डगमगाओ
और फिर भी
कैसे भीतर संभले
रहो। प्रेम
जानता है कि
कैसे आंख बंद
करो और फिर भी
दर्शन को
उपलब्ध हो
जाओ। प्रेम
जानता है कि
इंच भर न चलो
और हजारों मील
की यात्रा
पूरी हो जाए।
तर्क
इसे नहीं समझ
पाएगा। विचार
के लिए यह अगम्य
है। पर प्रेम
के लिए सहज, सुगम।
ऐसा
होश चाहिए, जिसमें
बेहोशी का रंग
हो। ऐसी
बेहोशी चाहिए,
जिसमें होश
का ढंग हो। और
जब तक ये
दोनों मिल न
जाएं तब तक
कुछ अधूरा है,
कुछ चूका—चूका
रहेगा। बहुत
लोग हुए हैं
जिन्होंने
होश साध लिया;
लेकिन
बेहोशी से
वंचित थे। तो
इनके होश में
मरुस्थल तो था,
उपवन के फूल
न खिले। एक
शांति थी, एक
सन्नाटा था, लेकिन उस
शांति में और
सन्नाटे में
मरघट की छाप
थी—जीवन का
राग नहीं, जीवन
का रंग नहीं।
बसंत नहीं, पतझड़; मधुमास नहीं,
रिक्त—रिक्त,
शून्य—शून्य,
खाली—खाली—भरापन
नहीं। बहुत
लोगों ने
प्रेम को छोड़
कर, प्रेम
के मार्ग को
छोड़ कर अपने
को एकमात्र
होश के साधने
में संलग्न
किया है। होश
सध भी जाए तो
भी पूरा नहीं
होगा। नृत्य
नहीं आएगा उस
होश में। उस
होश में गीत
नहीं जन्मेंगे,
फूल नहीं
खिलेंगे। और
वह झील क्या
जिसमें कमल न खिलें! और
वह होश क्या
जिसमें सुगंध
न उठे!—नृत्य
की, गीत की,
उत्सव की।
फिर
कुछ और लोग
हैं
जिन्होंने
बेहोशी साध ली, मस्ती
साध ली, लेकिन
होश को भूल
गए। तो उनके
जीवन में
मस्ती तो आयी,
नाच भी आया,
लेकिन उनके
पैर लड़खड़ाते
हुए। मस्ती
उनकी ऐसी जैसी
शराबी की।
मस्ती उनकी
ऐसी जैसे मूच्र्छित
व्यक्ति की।
हां, जीवन
का थोड़ा—सा
रंग—रूप वहां;
लेकिन परम
जीवन की कोई
छाप नहीं।
उनकी मस्ती मूर्च्छा
का ही दूसरा
नाम। उनकी
मस्ती एक तरह
की विक्षिप्तता।
ऐसी मस्ती से
बुद्धत्व
पैदा नहीं होता।
ऐसी मस्ती से
तुम गिरते हो,
उठते नहीं।
ऐसी मस्ती
तुम्हें पंख
नहीं दे सकती;
पंख उसकी
सामर्थ्य के
बाहर हैं।
बहुत
थोड़े—से लोग
हुए हैं
जिन्होंने
मस्ती को और
होश को साथ—साथ
साधा।
मैं
चाहता हूं
मेरा
संन्यासी
उन्हीं थोड़े—से
लोगों में से
हो। एक हाथ
मस्ती सधे, एक
हाथ होश सधे।
दोनों
तुम्हारे
भीतर मिलें। तुम
संगम बनो। और
तुम्हारे
भीतर
अभूतपूर्व घटित
होगा फिर।
रहस्यों का
रहस्य।
क्योंकि गा भी
सकोगे तुम और
गीत मूर्च्छा
के नहीं
होंगे। और नाच
भी सकोगे तुम
लेकिन पैर
तुम्हारे लड़खड़ाएंगे
नहीं। होश भी
होगा
तुम्हारे
भीतर और मरघट
का सन्नाटा
नहीं। उपवन का
संगीत, खिलते
फूल और
पक्षियों के
गीत और मोर के
नाच और पपीहे
की पुकार और
कोयल की कुहू—कुहू।
जहां इन दोनों
का मिलन होता
है, वहीं
संपूर्णता
प्रकट होती है,
समग्रता
प्रकट होती
है। इसलिए मैं
तुमसे संसार
छोड़ने को नहीं
कहता, संसार
को आत्मसात कर
लेने को कहता
हूं। तुम्हें भगोड़ा
नहीं बनाना
चाहता, तुम्हें
पलायनवादी
नहीं बनाना
चाहता, तुम्हें
विजेता बनाना
चाहता हूं।
तुम जीवन के
पार जाओ जरूर,
लेकिन जीवन
से भागना मत!
इस अनूठे गणित
को समझ सकोगे
तो संन्यास की
मौलिक
आधारशिला समझ
में आ जाएगी।
तूने
लिखा है :
तुम्हें
देखा तो
सांसें रुकी
ही रहीं ......
रुक ही
जानी चाहिए।
मन ही रुक
जाता है।
सद्गुरु को
जिसने देखा, पहचाना,
उसे
परमात्मा के
लिए झरोखा मिल
गया। सद्गुरु कुछ
और नहीं सिर्प
झरोखा है—एक
खिड़की। झरोखे
को पकड़ कर मत
रुक जाना।
खिड़की की चौखट
की पूजा मत करने
लगना। खिड़की
चौखट से जो
उलझ गया, वह
आकाश से वंचित
रह जाएगा।
खिड़की तो केवल
द्वार है।
उससे झांको
आकाश में।
अनंत आकाश और
उसके अनंत
तारे
तुम्हारे
हैं। खिड़की तो
सिर्प
अवसर है। और
जिसकी आंखें
आकाश पर उठ
जाएंगी, उसकी
सांसें रुक
जाएंगी। रुक
जाएंगी सांसे
इसलिए कि अवाक
हो जाएगा
हृदय! धक से रह
जाएगा हृदय! विस्मयविमुग्ध,
रसविभोर।
खयाल ही न
रहेगा सांस
लेने का। वह
गहराई
सुषुप्ति से
भी ज्यादा
गहरी है।
क्योंकि सुषुप्ति
में भी सांस
नहीं रुकती।
स्वप्न रुक
जाते हैं, लेकिन
सांस चलती
रहती है।
हमने
चार अवस्थाएं
खोजी हैं पूरब
में। एक जिसको
हम साधारणतः
जाग्रत कहते
हैं। वह सबसे
नीची अवस्था
है। उससे ऊपर
है स्वप्न।
तुम थोड़े चौंकोगे।
तुम्हारे
तथाकथित
जाग्रत से
स्वप्न ऊंची अवस्था
है। क्योंकि
जाग्रत में तो
तुम बेईमान होते
हो,
धोखेबाज
होते हो, पाखंडी
होते हो। तुम
सब तरह से ऐसा
दिखलाना चाहते
हो जैसे तुम
नहीं हो। और
वह छिपा लेते
हो जो तुम हो।
और दूसरों से
ही नहीं, अपने
से भी छिपा
लेते हो। धोखा
इतना गहरा हो
जाता है कि और
तो और खुद भी
धोखे में आ
जाते हो। जाल
इतना फैला
लेते हो कि और
कोई फंसेगा फंसेगा, न फंसेगा न
फंसेगा, लेकिन
तुम निश्चित
ही फंस जाते
हो। मकड़ी
खुद ही अपने
जाल में फंस
गई हो जैसे।
निकलने का
रास्ता नहीं
सूझता।
तुम्हारा होश
तो धोखाधड़ी
से भरा है।
आधुनिक
मनोविज्ञान
पूरब की इस
परम खोज को अब
स्वीकार करता
है। इसलिए
मनोवैज्ञानिक
के पास अगर
तुम जाओ तो वह
तुम्हारे
जागरण के
संबंध में कुछ
भी न पूछेगा, हां,
तुम्हारे
स्वप्नों के
संबंध में
पूछेगा। क्योंकि
स्वप्न कम—से—कम
स्वाभाविक
हैं।
स्वप्नों में
कम—से—कम तुम
बेईमानी नहीं
कर सकते।
स्वप्नों में
कम—से—कम तुम
पाखंडी नहीं
होते। जागरण
में शायद तुमने
उपवास किया हो,
लेकिन
स्वप्न में
तुमने सब तरह
के भोजन भोगे।
वह जो तुमने
दबा लिया था
जागरण में, स्वप्न में
उभर आया।
जागरण में
चाहे तुम संन्यासी
होओ, लेकिन
स्वपन
में तुम स्वर्णी
के महल
निर्मित करते
हो उनमें
निवास करते
हो। तुम्हारे
स्वप्न
तुम्हारी
अंतरात्मा के
ज्यादा करीब
मालूम होते
हैं। कम—से—कम
तुम्हारी
वस्तुस्थिति
के ज्यादा
स्पष्ट द्योतक
हैं। इसलिए
मनोवैज्ञानिक
तुम्हारे जागरण
को तो मूल्य
ही नहीं देता।
तुम्हारे जागरण
को तो बकवास
मानता है।
तुम्हारे
स्वप्नों में
विचार करता
है। तुम्हारे
स्वप्नों की व्याख्या
करता है।
पूरब
के मनीषी
हजारों साल से
इस सत्य को
जानते रहे हैं, कि
मनुष्य
धोखेबाज है, लेकिन सपने
में उसका वश
नहीं चलता।
सपने में असलियत
जाहिर हो जाती
है। सपने में
सब प्रकट हो
जाता है जैसा
वह है।
सपने
से भी ऊपर
अवस्था है
सुषुप्ति की।
जब स्वप्न भी
समाप्त हो
जाते हैं तब
केवल एक गहन
निद्रा रह
जाती है।
तुम्हें अपना
होश भी नहीं
होता, तुम हो
या नहीं इसका
भी पता नहीं
होता......सुपुप्ति
में कोई
तुम्हें मार
डाले तो
तुम्हें पता
भी न चलेगा।
इसलिए जब शल्य—चिकित्सक
तुम्हारा
आपरेशन करता
है, शल्यक्रिया
करता है, तो
तुम्हें पहले सुषप्ति
में ले जाता
है।
अनस्थीसिया, क्लोरोफार्म।
तुम्हें
बेहोश करने की
दवा देता है
कि तुम
सुषुप्ति में
चले जाओ। ताकि
फिर तुम्हारी
हड्डी काटी
जाएं, हाथ
काटे जाएं, पैर काटे
जाएं, तुम्हें
पता ही न
चलेगा।
तुम्हें मार
भी डाला जाए
तो तुम्हें
पता नहीं
चलेगा। इतनी
गहरी अवस्था
हो जाती है
तुम्हारी।
लेकिन फिर भी
सांस बंद नहीं
होती। श्वास
चलती रहती है।
श्वास
तो चौथी
अवस्था में
बंद होती है।
सुषुप्ति
के ऊपर भी
हमने एक
अवस्था खोजी
है—जो केवल
हमने खोजी है।
जो दुनिया के
किसी दूसरे
देश ने नहीं
खोजी।...... इस
दुनिया को अगर
हमारा कुछ दान
है,
मनुष्य के
चैतन्य—विकास
को अगर हमारी
तरफ से कुछ
भेंट है, तो
ये कुछ छोटी
चीजें हमारी
भेंट हैं।
छोटी दिखाई
पड़ती हैं, लेकिन
जो उनको समझते
हैं, वे
कहेंगे—हमने
बड़ी—से—बड़ी
संपदा मनुष्य
की चेतना को
दी है...... उस चौथी
अवस्था को
हमने सिर्प
चौथी अवस्था
कहा है। उसे
कोई नाम नहीं
दिया। उसे कहा
है : तुरीय।
तुरीय का अर्थ
होता है :
चौथी। उसे
विशेषण नहीं
दिया; क्योंकि
वह तीनों के
पार है। हां, तुरीय
अवस्था में
श्वास ठहर
जाती है।
इसलिए जैसे—जैसे
तुम ध्यान में
गहरे उतरोगे,
तुम चकित
होओगे; कभी—कभी
ऐसे क्षण
आएंगे ध्यान
में जब
तुम्हें
लगेगा जैसे
श्वास बंद हो गयी।
घबड़ाना
मत! उससे
तुम्हारी
मृत्यु नहीं
होगी। क्योंकि
इस शरीर की
श्वास तो बंद
हो जाती है—वह
बंद ही तब
होती है जब
तुम्हारे
भीतर और एक सूक्षम
श्वास का
अवतरण हो जाता
है, और भी
एक सूक्ष्म जीवनधारा
तुममें बहने
लगती है, परमात्मा
तुममें
प्रवेश करने
लगता है, तभी
यह श्वास बंद
होती है। नहीं
तो यह श्वास चलती
ही रहेगी।
ध्यान
में यदि श्वास
बंद हो जाए तो
भयभीत न होना......मेरे
पास बहुत
मित्र आते हैं, बहुत
भयभीत आते हैं
कि क्या हो
रहा है! कि जब
भी हम ध्यान
की गहराई में
जाते हैं तो
एकदम ऐसा लगता
है कि श्वास
बंद हो गई, घबड़ाकर
लौट आते हैं।
डर जाते हैं, जल्दी—जल्दी
श्वास लेने
लगते हैं, कि
कहीं मौत न हो
जाए। महत अवसर
से चूक गए।
श्वास बंद हो
जाए ध्यान में,
इससे बड़ा
कोई सौभाग्य
नहीं।
क्योंकि
श्वास जब
ध्यान में बंद
होती है तो
उसका अर्थ ही
इतना है कि अब
इस छोटे उपाय
की जरूरत नहीं
रही जीवन को।
जीवन महाजीवन
से जुड़ गया
है। अमृत से
जुड़ गया है।
परमात्मा से
संयुक्त हो
गया है।
छोटा
बच्चा जब मां
के पेट में
होता है तो
खुद श्वास
नहीं लेता, मां
श्वास लेती
है। उसी श्वास
से बच्चे को
जीवन
देनेवाली वायु
मिलती है।
इसलिए तो जब
बच्चा पैदा
होता है मां
के गर्भ से तो
श्वास लेता
पैदा नहीं
होता। सबसे
पहला काम होता
है चिकित्सक
का कि किसी तरह
उस बच्चे को
श्वास लेने के
लिए मजबूर कर
दे। चिकित्सक
बच्चे को पैर
पकड़ कर उल्टा
लटका देते
हैं। उस उल्टे
लटकाने के
पीछे राज है।
क्योंकि नौ
महीने मां के
पेट में श्वास
नहीं ली। मां
श्वास लेती
थी। और जब मां
ही श्वास लेती
थी तो मां का
हिस्सा था।
उसे अलग से
श्वास लेने की
कोई जरूरत न
थी। तो इन नौ
महीने में उसकी
पूरी श्वास की
जो प्रक्रिया
है, वह बंद
थी, और
उसके श्वास की
जो नलिका है, वह भी बंद
थी। उसने काम
ही नहीं किया
था; तो हो
सकता है उसकी
श्वास की
नलिका में कोई
अवरोध हो, बलगम
भरा हो। तो
उल्टा लटकाता
है चिकित्सक,
ताकि कोई
बलगम इत्यादि
श्वास की
नलिका में भरा
हो तो निकल
जाए ष्ठऔर
बच्चे की नाक
से शुरू—शुरू
में बलगम
निकलता है; श्वास नलिका
खाली हो जाती
है। अगर बच्चा
दो—मिनट के
भीतर रो न दे, तो घबड़ाहट
पैदा हो जाती
है कि बच्चा
जिंदा नहीं
है।
रोना
बच्चे के
श्वास लेने का
पहला प्रयोग
है। रो कर वह
यह घोषणा कर
रहा है कि अब
मैं अलग हूं। और
अलग होना रोने
की ही घोषणा
है। अलग होने
में ही तो
हमारे सारे
जीवन का दुःख
है;
हमारे जीवन
की पीड़ा है।
कथाएं
कहती हैं कि सिर्प एक
आदमी हंसता
हुआ पैदा हुआ
और वह था—जरथुस्त्र।
जरथुस्त्र
हंसता हुआ
पैदा हुआ। सारी
मनुष्य जाति
के इतिहास में
एक व्यक्ति! जरूर
महत्त्वपूर्ण
है बात।
जरथुस्त्र
हंसता हुआ
पैदा हुआ होगा, क्योंकि
वह परमात्मा
को जानता हुआ
पैदा हुआ। मां
उसका जीवन
नहीं थी, परमात्मा
उसका जीवन है।......
लेकिन मैं
मानता नहीं कि
घटना
ऐतिहासिक
होगी। यह तथ्य
नहीं हो सकता।
यह केवल
जरथुस्त्र के
संबंध में एक
प्रतीक है कि
जरथुस्त्र
परमात्मा को
जानता ही पैदा
हुआ। इस बात
को कहने के
लिए कहा कि
हंसता हुआ
पैदा हुआ। हम
तो रोते ही
पैदा होते हैं
और रोते ही
मरते हैं। हम
तो रोते पैदा
हों और हंसते
मर जाएं तो भी
बहुत। जरथुस्त्र
हंसते पैदा
हुआ, हंसते
मरा। वह परम
जीवन की
कल्पना है।
जीवन एक उत्सव—ही—उत्सव
है।
मां के
पेट में बच्चा
श्वास नहीं
लेता। पैदा
होने के दोत्तीन
मिनट के बाद
श्वास लेता
है। ऐसे ही जब
ध्यान की
अवस्था आती है
तब तुम
परमात्मा के
गर्भ में प्रवेश
कर रहे हो; फिर
श्वास बंद हो
जाती है। जब
मां ही काफी
थी श्वास लेने
को, तो
क्या तुम
सोचते हो
परमात्मा
काफी नहीं है
श्वास लेने को?
वह पर्याप्त
है। बूंद सागर
में समा गई, अब अपनी
क्या चिंता है?
परमात्मा
में प्रवेश
होते ही
तुम्हारी
श्वास बंद हो
जाती है, क्योंकि
उसकी श्वास
तुम्हारे
भीतर बहने लगती
है। सद्गुरु
के समक्ष भी
यह घटना कभी—कभी
घटेगी, क्योंकि
ध्यान बंध
जाएगा।
सद्गुरु के
पास ध्यान न
बंधे तो और
कहां ध्यान बंधेगा? सद्गुरु के
पास सुरत्ताल
न मिले तो और
कहां सुरत्ताल
मिलेगा? एक
जुगलबंदी
बंध जाती है।
सद्गुरु
तुम्हारे
भीतर श्वास लेने
लगता है।
इसलिए, मीरां,
ऐसा हो सकता
है। तू कहती
है—
तुम्हें
देखा तो
सांसें रुकी
ही रहीं ......
सांस
रुक सकती है, ध्यान
में। ध्यान
किसी भी कारण
से हो जाए। एक
गुलाब के फूल
को देखते—देखते
ध्यान हो जाए,
सुबह के
सूरज को उगते
देखते ध्यान
हो जाए, कि
पक्षी आकाश
में उड़े
और ध्यान हो
जाए, तो भी
श्वास रुक
जाएगी। जब भी
ध्यान होगा, श्वास रुक
जाएगी। इसका
एक बहुत
दुष्परिणाम हुआ,
इस अनुभूति
का। कुछ लोग
सोचने लगे कि
अगर श्वास रुक
जाए तो ध्यान
हो जाए। तो
योगी श्वास
रोकने की कोशिश
करते हैं : वह
निपट मूढ़ता
है! ध्यान
होने से जरूर
श्वास रुक
जाती है, मगर
श्वास रोकने
से कोई ध्यान
नहीं होता।
श्वास रोकने
से सिर्प
श्वास ही रुकेगी
और कुछ नहीं
होगा। तड़फोगे
भीतर और कुछ
नहीं होगा।
ध्यान
रखना, सदा
ध्यान रखना, उल्टे चलने
की कोशिश मत
करना। तुम
चलते हो तो तुम्हारी
छाया
तुम्हारे
पीछे चलती है।
मगर तुम छाया
के पीछे चलने
की कोशिश मत
करना। नहीं तो
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाओगे।
बड़े भटक
जाओगे। ध्यान
के पीछे—पीछे
श्वास बंद हो
जाती है। करनी
नहीं पड़ती, सहज हो जाती
है। और सभी को
ऐसा अनुभव हुआ
है। कभी किसी
क्षण में, आकाश
तारों से भरा
हुआ देखा है
और एक क्षण को
तुम अवाक हो
गए! अवाक का
अर्थ क्या
होता है? वाणी
रुक गई, अवरुद्ध
हो गई, ठगे
रह गए। ठगे
रहने का अर्थ
क्या होता है?
लुट गए जैसे;
जैसे कुछ न
बचा; मिट
गए जैसे; खो
गए जैसे।
फिल्म
देखने जाते हो
तुम। तुमने
खयाल किया? फिल्म
देखने के बाद
तुम्हारी
आंखें थक
क्यों जाती
हैं? फिल्म
के कारण नहीं।
वैज्ञानिक
कहते हैं, फिल्म
देखने के कारण
आंख नहीं
थकती।
क्योंकि फिल्म
देखो, या
कुछ और देखो, देखना तो एक
जैसा है। असली
आदमियों को
चलते रास्ते
पर देखो कि
छायाओं को
चलते हुए
पर्दे पर देखो,
देखने में
तो शक्ति उतनी
ही लगती है।
जब असली आदमियों
को देख कर आंख
नहीं थकती, तो तस्वीरों
को देखकर कैसे
थक जाएगी? लेकिन
थकने का
कारण कुछ और
है। जब तुम
फिल्म देखते
हो तब
तुम्हारी आंख
का झपकना बंद
हो जाता है, उसकी वजह से
आंख थकती है।
तुम ऐसे
संलग्न हो जाते
हो कि आंख
झपकती ही
नहीं। तुम भूल
ही जाते हो कि
आंख को झपकाना
है। और आंख न
झपके तो थकेगी।
क्योंकि
झपकने से आंख
को विश्राम
मिलता है। झपकने
से आंख को बीच—बीच
में विराम
मिलता है।
झपकने से आंख
ताजी रहती है—धूल
पुछ जाती
है। झपकने से
आंख गीली बनी
रहती है, आर्द्र
बनी रहती है, सूख नहीं
जाती। तीन
घंटे बैठे
रहोगे फिल्म
में और आंख न झपकाओगे
तो आंख सूख
जाएगी, धूल
जम जाएगी।
थकान उससे
पैदा होती है।
फिल्म
देखते—देखते
आंख का झपकना रुक
जाता है; तो
आकाश के तारे
देखते—देखते
कभी आंख का
झपकना नहीं
रुक जाएगा? एक सुंदर
संध्या, सूरज
का डूबना, बादलों
का रंगों से
भर जाना, वर्षा
के दिन, सावन
का महीना, आकाश
में
इंद्रधनुष की
मौजूदगी और
आंखें झपकेंगी!
सांस चलेगी!
यह सब अपने से
बंद हो जाएगा।
और जब भी कभी
ऐसा हो जाता
है, तभी
तुम्हें आनंद
की झलक मिलती
है। आनंद की
झलक इसलिए
मिलती है कि
थोड़ी देर के
लिए तुम्हारे
भीतर का सारा
व्यवसाय शांत
हो जाता है।
श्वास का भी
व्यवसाय शांत
हो जाता है।
तुम जैसे रहे ही
नहीं; तुम
जैसे किसी
परलोक में
प्रवेश कर गए।
सद्गुरु के
पास ऐसी घटना
न घटे तो वह
तुम्हारा
गुरु नहीं।
होगा किसी और
का। जिसको ऐसी
घटना घटती हो,
उसका होगा।
अगर तुम मुझसे
पूछो कि
सद्गुरु को कैसे
पहचानें?
तो बहुत पहचानों
में एक पहचान
बुनियादी यह
भी है कि
जिसके पास बैठे—बैठे
तुम्हारी
श्वास रुक
जाए। तो समझ
लेना झरोखा
करीब है; भाग
मत जाना, झरोखे
को ज़रा
टटोलना, रुके
रह जाना। तू
कहती है—
तुम्हें
देखा तो
सांसें रुकी
ही रहीं
मेरे
मालिक! ये
आंखें झुकीं
ही नहीं
पलकें
न झुकेंगी, आंखें
न झुकेंगी,
सब ठगा रह
जाएगा, सब
थिर हो जाएगा।
सत्संग का
अर्थ ही यही
है, मीरां! कि जहां सब
थिर हो जाए।
जहां शिष्य
ऐसा लीन हो
जाए कि उसका
अलग होना न
बचे। जहां
सद्गुरु
तुम्हारी आंख
हो, जहां
सद्गुरु
तुम्हारे
हृदय की धड़कन
हो, जहां
सद्गुरु
तुम्हारे
प्राणों का
आधार बन जाए।
मेरे
मालिक! ये
आंखें झुकीं
ही नहीं,
होश
आते ही तुम
छुप गए हो
कहां!
तुम
अभी थे यहां, तुम
अभी थे यहां।
लेकिन
होश आते ही यह
बात खो जाएगी।
होश आया अर्थात्
अहंकार वापिस
लौटा।
तुम्हारे होश
का इतना ही
अर्थ होता है।
होश आया यानी
तुम वापिस आए।
होश आया
अर्थात्
तुमने अपने को
झकझोरा और कहा
कि अरे, मैं
कहां खो गया
था? मैं
किस बात में
डूब गया था? यह मुझे
क्या हो गया
था? यह मैं
कैसा ठगा—सा, ठहरा—सा रह
गया था? यह
सांसें बंद
क्यों हुईं? यह आंखें झपकीं
क्यों नहीं? होश का
तुम्हारे लिए
एक ही अर्थ है :
तुम्हारी
वापसी; तुम्हारा
फिर लौट आना।
यह असली होश
नहीं है। यह
अहंकार का होश
है। और इसलिए
तत्क्षण
संबंध टूट
जाएगा।
सद्गुरु से भी,
सौंदर्य से
भी, सत्य
से भी, आनंद
से भी, परमात्मा
से भी।
तत्क्षण
संबंध टूट
जाएगा। वह जो
बंध रहा था
सेतु, वह
जो धागे प्रेम
के, वह जो
ढाई आखर के
धागे फैल रहे
थे, टूट
जाएंगे, तत्क्षण
टूट जाएंगे।
बड़े महीन हैं,
बड़े नाजुक
हैं। फिर
वापिस तुम
अपने अहंकार
में आ गए। फिर
श्वास चलने
लगेगी; फिर
आंख झपकने
लगेगी; फिर
वही दुःख, फिर
वही पीड़ा, फिर
वही चिंता, फिर वही
संताप; फिर
सब ऊहापोह
शुरू हो गया—विचार
भागने लगे, भावनाएं
उठने लगीं, तरंगायित हो
गया चित्त फिर
से; झील जो
अभी क्षणभर
को शांत हो गई
थी, मौन हो
गयी थी, फिर
तूफान उठ आया,
फिर आंधी आ
गई। इसलिए
संबंध इसलिए
संबंध घुट जाएगा।
वो जो क्षणभर
को झलक मिली
भी कहां खो गई,
पता भी न
चलेगा। पीछे
ऐसा भी लगेगा
कि कहीं भ्रांति
तो नहीं थी!
कहीं मन को
कोई धोखा तो
नहीं हुआ था!
लेकिन सच्चाई
यह है कि वही सत्य
था, मन को
धोखा अब हो
रहा है।
मगर
धीरे—धीरे, मीरा!
बारबार ऐसा
होगा। और जब
बारबार होगा
तो देर तक
ठहरेगा! जब
बारबार होगा
तो गहराई बढ़ेगी।
जब बारबार
होगा तो यह
अनुभव प्रगाढ़
होने लगेगा कि
सत्य क्या है,
असत्य क्या
है; रोशनी
क्या है, अंधकार
क्या है। और
जैसे—जैसे यह प्रगाढ़ता
अनुभव की बढ़ती
है, वैसे—वैसे
एक घड़ी आती है
एक दिन जब तुम
बिल्कुल ही विसर्जित,
समर्पित, कहां खो गए, पग—चिह्न भी
न मिलेंगे।
बुद्ध ने कहा
है, ज्ञानी
ऐसे खो जाता
है जैस पक्षी
आकाश में उड़ते
हैं और उनके
पैरो के पग—चिह्न
नहीं बनते।
ऐसे ही ज्ञानी
खो जाता है।
पक्षियों के
पग—चिह्नों की
भांति। बुद्ध
ने कहा कि
जैसे कोई पानी
पर अक्षर
लिखे। लिख भी
नहीं पाता और
खो जाता है।
ऐसे ही ज्ञानी
खो जाता है।
मगर यह खो जाना
पा जाने की
प्रक्रिया
है। यह मिटना
होने की सीढ़ी
है। यह शून्य
होना पूर्ण
होने का द्वार
है।
दूसरा
प्रश्न :
भगवान, संसार
में मुझे
बुराई ही
बुराई क्यों
दिखाई देती है?
कृष्णानंद, संसार
तो दर्पण है।
संसार में जो
दिखाई देता है,
वह अपना ही
चेहरा है।
संसार तो
प्रतिध्वनि
है। संसार में
जो सुनाई पड़ता
है, वह
अपनी ही आवाज
है। हम संसार
में वही पाते
हैं, जो हम
हैं; जैसे
हम हैं।
एक
शराबी किसी
अजनबी गांव
में आए। आते
ही शराबघर का
पता पूछेगा।
दस—पांच दिन
के भीतर ही
तुम पाओगे कि
गांव के सारे
शराबियों से
उसकी पहचान हो
गई,
दोस्ती हो
गई। जैसे गांव
में कोई और
रहता ही नहीं।
शराबियों से
ही उसका मिलन
होगा। एक जुआरी
आए, जुए के
अड्डे पर
पहुंच जाएगा। जुआरियों
से दोस्ती बन
जाएगी। जैसे
कोई चुंबक
खींचता हो।
उसी गांव में
सत्संग भी
चलता होगा, मगर जुआरी
को सत्संग का
पता ही नहीं
चलेगा। सत्संग
के पास से
गुजर जाएगा और
कानोंकान आहट
भी न मिलेगी।
फिर उसी गांव
में कोई
संन्यासी आए,
उसे पता भी
न चलेगा कि
गांव में कोई
शराबघर भी है;
कि गांव में
कोई जुआरी भी
रहते हैं।
झेन
फकीर रिंझाई
कंबल ओढ़ कर
बैठा था।
देखता था
पूर्णिमा का
चांद। साधारण
रात न थी, असाधारण
थी; और भी
असाधारण थी, क्योंकि इसी
पूर्णिमा की
रात को इसी वैशाक
की पूर्णिमा
को बुद्ध को
ज्ञान उपलब्ध
हुआ था। इसी पूर्णिमा
की रात को
बुद्ध पैदा
हुए। इसी
पूर्णिमा की रात
उनके जीवन में
भी चांद उतरा,
प्रकाश
उतरा। और इसी
पूर्णिमा की
रात वे महापरिनिर्वाण
में प्रविष्ट
हुए।
उन्होंने देह छोड़ी।
रिंझाई बैठा
है, सर्द
रात, कंबल ओढ़े, देखता
है चांद को, आनंद—विभोर है,
मग्न है—सांसें
उसकी बंद रही
होंगी; आंखें
एकटक चांद को
देखती होंगी।
इस चांद ने जैसे
बुद्ध को बहुत—बहुत
याद दिला दिया
है। तभी एक
चोर उनके झोंपड़े
में घुस आया।
रिंझाई ने चोर
को देखा, जाकर
चोर को पकड़ा
और कहा कि भाई,
क्षमा कर!
चोर तो बहुत
घबड़ाया।
क्षमा तो उसे
मांगनी
चाहिए। वह तो
छूट के भागने
लगा। रिंझाई
ने कहा, रुक,
ऐसे मत जा! खाली हाथ
जाएगा तो मैं जिंदगीभर
दुःखी
रहूंगा। यह
कंबल लेता जा!
और तो मेरे पास
कुछ है नहीं।
कंबल दे दिया
चोर को।
रिंझाई नंगा
था कंबल के
भीतर—कुछ और
तो था नहीं।
चोर झिझका भी।
चोर भी झिझका!
इस प्यारे
फकीर से इसका
कंबल ले लेना
और इसको नंगा
छोड़ जाना ठंडी
रात में, उसने
ना—नुच की, लेकिन
रिंझाई ने कहा
कि नहीं मानूंगा।
मुझे बड़ा दुःख
होगा। और यह
कोई बात हुई? इतना बड़ा
सौभाग्य दिया
मुझे—आज तक
कोई चोर मेरे झोंपड़े पर
नहीं आया। चोर
जाते हैं धनपतियों
के घर! तूने
मुझे धनपति
बना दिया। चोर
जाते हैं
राजाओं, सम्राटों
के घर! तूने आज
मुझे राजा और
सम्राट होने
का मजा दे
दिया। तूने
मुझे जो दिया
है, वह
बहुत ज्यादा
है, कंबल
तो कुछ भी
नहीं। आज लग
रहा है कि हम
भी कुछ हैं।
चोर इधर भी
आने लगे! तू
देख, ले जा!
और आगे से
खयाल रख, यह
कोई ढंग नहीं!
यह कोई
शिष्टाचार है?
अरे, दो—चार
दिन पहले खबर
करता तो हम
कुछ इंतजाम कर
लेते। दुबारा
जब आए, तो
एक चार दिन
पहले एक
पोस्टकार्ड
ही डाल देना।
कुछ तेरे लिए
आयोजन कर
लेते। इतने
दूर तू आया
गांव से, सर्द
रात्रि, एक
कंबल ही दे
रहा हूं, मेरी
आंखों में
आंसू हैं, नहीं
मत कर!
ऐसे
आदमी को क्या
नहीं करो और
क्या हां भरो, चोर
तो कुछ किंकिर्तव्यविमूढ़
हो गया। उसकी
तो समझ में ही
नहीं आया।
बहुत देखे थे
उसने लोग, बहुतों
घरों में चोरी
की थी, बहुत
बार पकड़ा भी
गया था, मगर
यह आदमी अनूठा
था! यह आदमी
पहली दफा मिला
था। भागा लेकर
कंबल! जैसे ही
बाहर जा रहा था
कि रिंझाई ने
आवाज दी कि
ठहर, कम—से—कम
धन्यवाद तो दे
दे, शिष्टाचार
तो सीख। कम—से—कम
इतनी ही बात
तो याद रख! और
दरवाजा बंद कर
दे। जब आया था
दरवाजा बंद था,
तू खोलकर
भीतर आया; अब
दरवाजा फिर
बंद कर दे और
धन्यवाद देकर
अपने रास्ते
पर लग! दुबारा
जब आए, पहले
खबर कर देना।
उसने जल्दी से
धन्यवाद दिया
और दरवाजा बंद
किया। रिंझाई
ने उसे आवाज
दी कि ठहर, तो
उसकी छाती धक
से हो गई कि यह
आदमी बड़ा अजीब
है! यह क्या कर
गुजरे, कुछ
कहा नहीं जा
सकता!
फिर वह
पकड़ा गया
अदालत में, किसी
और चोरी के
मामले में। और
वह कंबल भी
पकड़ा गया। वह
कंबल तो जाहिर
था। वह तो
पूरे जापान
में जाहिर था।
वह तो सभी को
पता था कि यह
रिंझाई का कंबल
है। रिंझाई तो
इतना
प्रसिद्ध था
कि सम्राट उसके
चरणों में आते
थे। वह कंबल
किसको पता
नहीं था? सम्राटों
ने जिस कंबल
में रिंझाई को
देखा हो, लोगों
ने, हजारों
लोगों ने जिस
कंबल में देखा
हो—मजिस्ट्रेट
ने भी रिंझाई
को देखा था उस
कंबल में, उसने
कहा यह कंबल
रिंझाई का है।
और कुछ दिन से वह
सिर्प
लंगोटी में है,
उसका कंबल
कहां गया, आज
पता चला। तो
तूने उस फकीर
को भी नहीं
छोड़ा! तेरी और
चोरियां मैं
माफ भी कर दूं,
मगर यह चोरी
मैं माफ नहीं
कर सकता। यह
हद हो गई।
रिंझाई की भी
तू चोरी कर
सका! चोर ने
बहुत कहा कि
मालिक, सुनो,
यह चोरी
मैंने की नहीं,
उसने
जबरदस्ती
मुझे कंबल
दिया। वह माने
ही नहीं। मैं
अपनी जान
बचाने के लिए
कंबल ले आया।
और अब आप से
क्या कहूं? उसकी वह कड़कती
आवाज, जब
उसने कहा कि
रुक, अभी
याद आ जाती है
तो मेरी छाती
दहल जाती है।
और उसने कहा
बंद कर
दरवाजा! क्या
आदमी है!! क्या
उसकी आवाज है!!
आदमी बहुत
देखे मगर यह
आदमी आदमी
है। मगर चोरी
मैंने नहीं
की। सम्राट ने
कहा, अगर
रिंझाई कह दे
कि चोरी तूने
नहीं की, तो
हम तुझे मुक्त
कर देंगे—और
चोरियों से भी
मुक्त कर
देंगे; उसकी
गवाही काफी
है।
रिंझाई
बुलाया गया।
रिंझाई
ने कहा कि
नहीं, यह आदमी
चोर नहीं है।
पहले तो यह
आदमी बड़ा सीधा—सादा
है। मेरे घर
आया, बिना
खबर किए आया।
इसकी सादगी
देखो, इसका
भोलापन देखो!
दूसरे, यह
आदमी बड़ा
शिष्टाचारी
है। जब मैंने
कहा, ठहर, दरवाजा बंद
कर, तो
इसने दरवाजा
बंद किया; यह
बड़ा
आज्ञाकारी
है। और जब
मैंने कहा, धन्यवाद दे,
तो इसने
धन्यवाद
दिया। इसने ज़रा संकोच
न किया। यह
बड़ा आस्थावान
है। यह चोरी नहीं
की है इसने।
मैंने इसे
कंबल दिया तो
यह ना—नुच
करता था, इंकार
करता था, मना
करता था; हजार
इसने भागने की
कोशिश की थी।
यह आदमी बड़ा सज्जन
है। मुझ गरीब
को देखकर, नंगा
देखकर इसे बड़ी
दया आई, इसके
हृदय में बड़ी
करुणा है। यह
चोर तो हो ही नहीं
सकता।
रिंझाई
ने जब ऐसा कहा, तो
मजिस्ट्रेट
ने उसे छोड़
दिया। रिंझाई
बाहर निकला, वह आदमी भी
रिंझाई के
पीछे हो लिया।
रिंझाई ने कहा,
क्या इरादा
है, अब
मेरे पास कुछ
भी नहीं! उस
चोर ने कहा कि
अब मैं लेने
नहीं आ रहा
हूं, अपने
को देने आ रहा
हूं। अब
तुम्हारे
चरणों को
छोड़कर कहीं और
नहीं जाऊंगा।
तुम्हें क्या
देखा, आदमियत
की गरिमा देख
ली। तुम्हें
क्या देखा, परमात्मा पर
भरोसा आ गया।
रिंझाई ने चोर
में चोर नहीं
देखा, बेईमान
नहीं देखा, तो फिर चोर
भी रिंझाई में
परमात्मा को
देख सका।
तुम
कहते हो, कृष्णानंद,
संसार में
मुझे बुराई ही
बुराई क्यों
दिखाई देती है?
ज़रा भीतर टटोलो,
ज़रा अपनी गांठ
में टटोलो,
वहां कुछ
भूलचूक होगी।
सब से बड़ी
भूलचूक है, अहंकार।
अहंकार के
कारण लोग
दूसरों में
बुराई देखते
हैं। क्योंकि
अहंकार
दूसरों में
बुराई देखकर
बड़ा
प्रफुल्लित
होता है कि
मैं श्रेष्ठ,
कि मैं
सुंदर, कि
मैं महात्मा,
कि मैं
पवित्र; कि
कौन है जो
मेरा जैसा विनम्र
और कौन है जो
मेरा जैसा
पुण्यात्मा; कि कौन है जो
मेरा जैसा
दानवीर, दानशूर।
अहंकार
दूसरों पर
जीता है।
दूसरों की
लकीरें छोटी
कर देता है, तो अपनी
लकीर बड़ी
मालूम पड़ने
लगती है।
दूसरों को
छोटा करने का
एक ही उपाय है
कि उनकी बुराई
देखो, बुराई—ही—बुराई
देखो।
अहंकारी
आदमी से कहो
कि फलां आदमी
बहुत सुंदर बांसुरी
बजाता है, वह
फौरन कहेगा—क्या
वह ख़ाक
बांसुरी बजाएगा?
चोर, बेईमान,
लुटेरा, वह
क्या बांसुरी बजाएगा? वह क्या ख़ाक
बांसुरी बजाएगा?
अरे, मैं
उसे भलीभांति
जानता हूं।
लेकिन रिंझाई
जैसे किसी
आदमी से अगर
कहो कि वह आदमी
चोर है, तो
वह कहेगा, नहीं
हो सकता, क्योंकि
मैंने उसकी
बांसुरी सुनी
है। जो इतनी
प्यारी
बांसुरी
बजाता है, वह
चोर कैसे हो
सकता है? असंभव।
यह मैं मान ही
नहीं सकता।
अपनी आंख से देख
लूं तो
समझूंगा मेरी
आंख गलत देखती
है, कि
मेरी आंख में
कहीं भूल—चूक
है, लेकिन
जो इतनी
प्यारी
बांसुरी
बजाता है, संगीत
पर जिसका ऐसा
वश है, ऐसा
अधिकार है, वह चोरी
करेगा? असंभव!
अरे, संगीत
जिसे मिला है
वह किस संपदा
के लिए उत्सुक
होगा?
लोग
हैं,
जो गुलाब की
झाड़ी के पास
जाएं तो कांटे
गिनेंगे।
और लोग हैं, जो कांटों
की फिक्र ही न
करेंगे और फूल
गिनेंगे।
और एक फूल भी
दिखाई पड़ जाए
तो सारे कांटे
व्यर्थ हो
जाते हैं। एक
फूल का होना
काफी है सारे कांटों
को व्यर्थ कर
देने के लिए।
लेकिन जो लोग
कांटे ही
गिनते हैं, स्वभावतः
उसके हाथों
में कांटे चुभ
भी जाएंगे।
कांटों की
गिनती करोगे
तो कांटे चुभेंगे।
लहूलुहान हो
जाओगे। फिर जब
हाथ लहूलुहान
होंगे और पीड़ा
से भरे होंगे,
तो किसको
फूल दिखाई पड़
सकता है? और
जिसने कांटे
गिने, उसका
तर्क यह होगा
कि जहां इतने
कांटे हैं, वहां फूल
भ्रम ही हो
सकता है, सत्य
नहीं।
दुनिया
में दो ही तरह
के लोग हैं।
कांटे गिनने
वाले लोग, उनको
फिर फूल नहीं
दिखाई पड़ते; दिखाई भी
पड़ें तो वे
कहेंगे भ्रम
होगा; और
वे लोग जो फूल
गिनते हैं।
उनको फूल
दिखाई पड़ जाते
हैं, तो
उनके लिए
कांटे कांटे
नहीं रह जाते,
फूलों के
पहरेदार हो
जाते हैं, फूलों
के रक्षक हो
जाते हैं।
क्योंकि वही जीवनधार
तो कांटे में
बहती है जो
फूल में। फिर
उनकी कांटों
से भी दुश्मनी
नहीं रहती।
फूलों से
दोस्ती क्या
हुई, कांटों
से भी दुश्मनी
नहीं रह जाती।
अपने
अहंकार को
थोड़ा तलाशो।
उसी की छाया
तुम्हें
चारों तरफ
दिखाई पड़ रही
होगी।
बरसात
के दिन, आंगन
में रखे घड़े
में पानी भर
गया था।
मुल्ला नसरुद्दीन
का बेटा
प१३२जलू एक
दिन घड़े
में झांक रहा
था कि उसके
हाथ से संतरा फिसलकर घड़े में
गिर गया। वह
रोने लगा।
पानी में उसे
अपनी ही परछाई
दिखाई दी।
"क्यों
रोते हो, बेटे?"
नसरुद्दीन ने पूछा।
फजलू ने कहा
कि उस छोकरे
ने जो घड़े
में छिपा बैठा
है, मेरा
संतरा छुड़ा
लिया।
"रुको,
मैं आता
हूं।" मुल्ला
ने घड़े के
पास पहुंचकर
उसमें झांका,
उसे दाढ़ी—मूछों की
परछाई दिखाई
दी। गुस्से
में उसने कहा,
"क्यों जी, इस उम्र में
भी बच्चों के
साथ मजाक करते
हो, शर्म
नहीं आती!"
संसार
में हमें सिर्प
अपनी प्रतिछवियां
दिखाई पड़ती
हैं। अपनी प्रतिध्वनियां
सुनाई पड़ती
हैं। तुम
गालियां दोगे, तो
गीत नहीं
सुनाई
पड़ेंगे। गीत
गाओ! तो गीतों की
तुम पर वर्षा
हो जाएगी। तुम
पत्थर
फेंकोगे, पत्थर
ही तुम पर लौट
आएंगे। यह
संसार वही
लौटा देता है
वापिस, हजार
गुना करके, जो तुम इसे
देते हो। यही
तो कर्म के
सिद्धांत का
मौलिक सूत्र
है। तुम जो
करते हो, वही
तुम पर वापिस
लौट आता है।
हजारगुना
होकर लौट आता
है। अच्छा तो
अच्छा, और
बुरा तो बुरा।
तुम्हें
लोगों में
बुराई ही बुराई
दिखाई पड़ती है,
तो जरूर
कहीं
तुम्हारे
भीतर कोई
सुत्र है जो लोगों
के भीतर बुराई
को जगाता है
जो लोगों के भीतर
सोई हुई बुराई
को उकसाता है।
मत
फिक्र करो कि
लोग बुरे हैं
या अच्छे, फिक्र
इतनी ही करो
कि तुम कहां
हो? तुम
क्या हो? तुम
कौन हो? लोगों
से लेना—देना
भी क्या है! आज
तुम हो, कल
नहीं रहोगे, दुनिया तो
चलती रही है, चलती रहेगी।
कल तुम नहीं
थे तब भी
दुनिया चलती
थी, कल तुम
नहीं होओगे तब
भी दुनिया
चलती रहेगी।
फिर लोगों को
बदलना होता, लोगों को
अच्छा बनाना
होता, ऐसा
कोई दायित्व
तुम्हारे ऊपर
किसी ने सौंपा
होता, तो
भी कोई बात थी
कि तुम चिंता
करो, कौन
अच्छा, कौन
बुरा? तुम्हें
लेना—देना
क्या है!
बुद्ध
ने कहा है कुछ
लोग ऐसे पागल
हैं,
जैसा एक
आदमी था जो
अपने घर के
सामने बैठ कर
रोज सुबह गांव
भर की गाय—भैंसों
को गिनता जो
कि गांव के
बाहर नदी के
पार घास चरने
जातीं। और जब
सांझ को आतीं
तब भी घर के
बाहर बैठ कर
गिनती करता।
कि उतनी ही
वापिस लौट रही
हैं कि नहीं
जितनी सुबह गई
थीं? बुद्ध
ने उस आदमी से
पूछा कि भई, तेरे पास
कितनी गाय—भैंसे
हैं? उसने
कहा, मेरे
पास तो एक भी
नहीं। तो
बुद्ध ने कहा,
दूसरों की
गाय—भैंसें
गिनकर तुझे
क्या मिलेगा?
कि कितनी
गईं और कितनी
लौटीं, तुझे
लेना—देना
क्या है! तू
नहीं था तब भी
गाय—भैंसें
आती रहीं, जाती
रहीं, तू नहीं
भी होगा तब भी
गाय—भैंसें
आती रहेंगी, जाती
रहेंगी।
दूसरों की गाय—भैंसें
गिनेगा? समय व्यर्थ
करेगा? जीवन
गंवाएगा?
और कितना
बहुमूल्य समय
है!
लेकिन
हम यही करते
रहते हैं। कौन
बुरा? उसके
कितने कृत्य
बुरे? कौन
भला? और
भला तो फिर
मिलता नहीं।
क्योंकि भला
मिल नहीं
सकता। उसके भी
पीछे वही
अहंकार कारण
है। जब भी
तुम्हें कोई
भला आदमी
मिलेगा तो
तुम्हारे अहंकार
को चोट लगती
है कि मुझ से
भी कोई भला है?
मुझ से भी
कोई बड़ा है? मुझ से भी
कोई
श्रेष्ठतर है?
मुझ से भी
कोई ऊपर हो
सकता है? असंभव!
तो फिर
तुम्हें भले
आदमी में बुराइयां
खोजनी पड़ती
हैं। ताकि तुम
उसे खींच कर
अपने से नीचे
स्तर पर ला
सको। अपनी
बुद्धिमत्ता
को निखारो!
अपनी जीवनऊर्जा
को निखारो!
परिष्कृत करो!
गांव
के गंवार श्री
भोंदूमल
जब शहर घूमने
आए,
तो
उन्होंने
देखा कि एक
जगह कुछ लोग
भीड़ लगाए खड़े
हैं और दो
आदमी एक मोटी
रस्सी को पकड़कर
पूरी ताकत
लगाकर खींच
रहे हैं। आधे
इस तरफ आधे उस
तरफ। वहां
रस्सी—खींच
प्रतियोगिता
हो रही थी।
थोड़ी देर तक
तो भोंदूमल
खड़े देखते रहे,
मगर फिर
उनसे न रहा
गया, तो
चिल्लाकर
बोले : भाइयो,
इतने पसीना—पसीना
क्यों हुए जा
रहे हो? मैं
तो सोचता था
कि गांव में ही
अनपढ़ और गंवार
लोग रहते हैं
मगर तुमने तो
यह हद कर दी!
अरे, पढ़े—लिखे गंवारो,
तुम्हें
इतनी भी समझ
नहीं है कि
इसे चाकू से काट
दो; यह
रस्सा इस तरह टूटनेवाला
नहीं है।
भोंदूमल तो भोंदूमल
के ढंग से ही
देखेंगे न!
उनकी बुद्धि
तो उतनी ही
दूर तक जाएगी
जितनी दूर जा सकती
है। और सबके
भीतर भोंदूमल
छिपे बैठे
हैं। इन्हीं भोंदूमल
के कारण संसार
में इतना
उपद्रव मचा
रहता है। क्योंकि
तुम्हारा भोंदूमल
दूसरे के भोंदूमल
से झगड़
रहा है। भोंदूमल
एक—दूसरे के
पीछे पड़े हुए
हैं। एक—दूसरे
की पत्ती
काटने में लगे
हैं। एक—दूसरे
में बुराइयां
देख रहे हैं।
क्या तुम्हें
पड़ी है? अपनी संवारो!
थोड़े दिन हैं,
थोड़ा समय है,
अपने को निखारो!
कृष्णानंद, इस
आदत को छोड़ो!
कहीं ऐसे ही
समय न बीत
जाए। और जब भी
यह आदत आए—आएगी
बार—बार, पुरानी
होगी, जन्मों—जन्मों
की है...... सबकी है,
कृष्णानंद,
तुम्हारी
ही नहीं है; जन्मों—जन्मों
का अभ्यास है;
तो हम जल्दी
से निर्णय ले
लेते हैं।
किसी आदमी का
एक छोटा—सा
कृत्य देखा और
निर्णय ले
लिया पूरे
आदमी के संबंध
में! कभी
तुमने इस बात
की थोड़ी भी
चिंतना की है
जैसे किसी
उपन्यास का एक
फटा हुआ पन्ना,
आधा—धूधा,
लकीरें भी
पूरी नहीं, हवा में उड़ता
हुआ तुम्हें
मिल जाए और
तुम उसको पढ़ो;
क्या खाक पढ़ोगे? न
लकीरें पूरी
हैं, न
पन्ना पूरा है—और
पन्ना पूरा भी
हो, लकीरें
पूरी भी हों
तो भी पन्ना
ही है। और आगे—पीछे
बहुत कुछ है, जिसका
तुम्हें कुछ
पता नहीं।
क्या उन आधी
टूटी—फूटी
लकीरों, उस
फटे पन्ने के
आधार पर तुम
पूरे उपन्यास
के संबंध में
कोई निर्णय ले
सकोगे? लेकिन
यही हम कर रहे
हैं
व्यक्तियों
के संबंध में।
एक
व्यक्ति बहुत
बड़ी घटना है।
जन्मों—जन्मों
की लंबी
यात्रा पीछे
है। उसका एक
छोटा—सा कृत्य
तुम देखते हो......एक
छोटा—सा कृत्य
एक लकीर से भी ज्यादा
नहीं—लकीर भी
अधूरी, क्यों
उसका
अभिप्राय
तुम्हें
दिखाई नहीं पड़ता
सिर्प
कृत्य दिखाई
पड़ता है; और
असली बात तो
अभिप्राय है।
वह जो करता है,
वह उतना
महत्त्वपूर्ण
नहीं है, क्योंकि
करता है, वह
महत्त्वपूर्ण
है। और तुम
निर्णय ले
लेते हो पूरे
मनुष्य के
संबंध में।
पूरे मनुष्य
में उसका पूरा
अतीत सम्मिलित
है और अतीत ही
नहीं, पूरे
मनुष्य में
उसका पूरा
भविष्य भी
सम्मिलित है।
गौतम
बुद्ध ने अपने
अतीत जन्म की
कथा कही है। कि
एक समय बहुत—बहुत
जन्मों पूर्व
मैं एक बुद्धपुरुष
के दर्शन को
गया था।
दीपंकर बुद्ध
उनका नाम था।
मैं उनके
चरणों में
झुका, चरण छू
के उठ भी नहीं
पाया था कि
मैं चौंक गया,
समझ ही न
पाया, इसके
पहले कि कुछ
करूं, बात
हो गई, दीपंकर
झुके, उन्होंने
मेरे चरण छुए।
मैंने उनसे
कहा, आप यह
क्या करते हैं?
मैं आपके
चरण छूऊं,
यह तो सही; मैं अज्ञानी,
मैं मूढ़,
मैं मूच्छिर्त,
मैं
प्रमादी; आप
मेरे चरण छूएं!
आप हैं
प्रबुद्ध, आप
हैं जाग्रत, आप हैं
भगवत्ता को
उपलब्ध, आप
हैं भगवान, आप मेरे चरण छूएं! तो
दीपंकर बुद्ध
ने मुझसे कहा
था : तू केवल
अपना अतीत
देखता है, मैं
तेरा भविष्य
भी। आज नहीं
कल तू बुद्ध
होगा।
क्योंकि आज
नहीं कल सभी
बुद्ध होंगे।
देर—अबेर की
बात है। मेरा
अतीत ही तो तू
नहीं है, तेरा
भविष्य भी तू
है; मैं
तुझे तेरी
समग्रता में
देखता हूं।
मैं जानता हूं
इतने—इतने
जन्मों के बाद
तेरा कमल
खिलेगा, तेरा
सहस्त्रदल
कमल खिलेगा, तू महासमाधि
को उपलब्ध
होगा। मैं उसी
घटना को देख
कर झुक कर तेरे
चरण छू रहा
हूं!
तुम तो
सामने जो फूल
हों उनको नहीं
देख पाते। देखने
वाले उन फूलों
को देख लेते
हैं जो अभी
खिले भी नहीं।
खिलना तो दूर, जो
अभी कली भी
नहीं बने। कली
भी दूर, जो
अभी बीज में
छिपे पड़े हैं।
आंख गहरी हो
तो बीज में भी
फूल दिखाई पड़
जाता है। और
अंधों को फूल
में भी फूल
दिखाई नहीं
पड़ता।
फिर
जल्दी निर्णय
करने की इतनी
जल्दी क्या? यह
आदमी बुरा, यह आदमी भला,
कितनी
जल्दी तुम
निर्णय ले
लेते हो! ज़रा
ठहरो, थोड़ा
धीरज, आदमी
जटिल घटना है,
बड़ी घटना
है!
एक
किराने का
दुकानदार
बहुत ज्यादा
हकलाता था। नसरुद्दीन
उसके यहां गुड़
खरीदने गया।
एक किलो गुड़
लिया। दाम
पूछने पर
दुकानदार
बोला :"त...... त्
...... त ...... त......त . . तत्. .
ती......ती ......न रु
......पए।"
मुल्ला ने
पैसे चुकाए और
चल दिया।
कुछ
दिनों बाद फिर
गुड़ लेने आया।
एक किलो गुड़ लिया।
इस बार
दुकानदार का
छोटा भाई वहां
था,
उसने तीन
रुपए पचास
पैसे कीमत
बतायी। नसरुद्दीन
ने कहा : अंधेर
है, भाई; अरे, तीन—चार
रोज पहले ही
मैं गुड़ ले
गया था, उस
दिन तीन रुपए
दाम थे, चार
दिन में ही
इतने दाम बढ़
गए! आपके बड़े
भाई उस दिन
दुकान पर बैठे
थे, उनसे
पूछ लो, यदि
मुझ पर
विश्वास न हो
तो।"
"मुझे
आप पर पूरा
विश्वास है, बड़े मियां,"
वह आदमी
बोला, "असल
में मेरे बड़े
भाई साहब
बोलने में
थोड़ा अटकते
हैं; वे
पचास पैसे कह
पाते, इसके
पहले ही आप
तीन रुपए चुका
कर चल दिए!"
ज़रा
ठहरो! ज़रा
पूरा आदमी को
बोल भी तो
लेने दो!!
जिंदगी
में सभी कृत्य
अधूरे हैं। एक—एक
कृत्य के
हिसाब से
निर्णय नहीं
होता, कृत्यों
का निचोड़,
इत्र, उससे
निर्णय होते
हैं। एक—एक
फूल से निर्णय
नहीं होता, निचोड़! अच्छे—से—अच्छे
आदमी के जीवन
में कोई काम
बुरा मिल सकता
है।
कल ही
मैं तुमसे कह
रहा था : कि
बाबा मलूकदास
घर से चोरी कर
के साधु—संतों
को बांट आते
थे। अब चोरी
करना कोई
अच्छा कृत्य
तो नहीं। बाकी
हिसाब छोड़ दो; सिर्प
चोरी पकड़ो।
कोई तुमसे कहे
कि चोरी करना
बुरा है या
अच्छा? तुम
स्वभावतः
कहोगे बुरा
है। वह तुमसे
कहे, बाबा मलूकदास
चोरी करते थे,
ये किस तरह
के बाबा, ये
किस तरह के
संत? तुम
कहोगे, भाई,
अगर चोरी
करते थे तो
बात ठीक नहीं।
मगर यह प्रसंग
के बाहर है
बात। बाबा मलूकदास
चोरी करते थे
कि साधु—संतों
को बांट आएं, कि उनको दे
आएं जिनको
जरूरत है। हम
से ज्यादा जिनको
जरूरत है, उनको
दे आएं। यह
अभिप्राय
पूरा का पूरा
साथ में देख
कर सोचोगे तो
बात बदल जाती
है। बात का
अर्थ बदल जाता
है। प्रसंग के
साथ अर्थ बदल
जाते हैं।
पृष्ठभूमि के
साथ अर्थ बदल
जाते हैं। तुम
किसी व्यक्ति
की पूरी जीवन—भूमिका
तो देखो!
लाओत्सू
कुछ दिनों के
लिए
न्यायाधीश हो
गया था। पहले ही
दिन जो मुकदमा
आया,
वहीं बात
गड़बड़ हो गई।
एक चोर पकड़ा
गया था, धन
भी पकड़ लिया
गया था, चोर
ने स्वीकार भी
कर लिया—क्योंकि
लाओत्सू
जैसे आदमी के
सामने कैसे
इनकार करे? लाओत्सू ने उससे
इतना ही कहा
कि भाई, तूने
चोरी की हो तो
कह दे, नहीं
की हो तो कह दे!
तू जो कहेगा
सो मैं मान
लूंगा।
साहूकार, जिसकी
चोरी हुई थी, उसने कहा, यह क्या हो
रहा है? ऐसे
कहीं निर्णय
होते हैं? लाओत्सू ने कहा, तुम
चुप रहो! मुझे
आदमी पर भरोसा
है। मैं छोटी—मोटी
बातों के लिए
आदमी पर भरोसा
नहीं खो सकता।
और तुम हो इस
गांव के सबसे
बड़े बेईमान, तुम बीच में
नहीं बोलो तो
अच्छा है।
चोर ने
जब यह सुना तो
चोर कैसे
इनकार करे!
चोर ने सिर
झुका कर कहा
कि मैं क्षमाप्रार्थी
हूं,
मैंने चोरी
की है। मैं
अपने को
अपराधी
स्वीकार करता
हूं। लाओत्सू
ने कहा, फिर
ठीक; छः
महीने की तुझे
सजा और छः
महीने की सजा
साहूकार को।
साहूकार ने तो
कहा कि आप होश
में हैं? चोरी
मेरे घर हो और
सजा भी मुझे! लाओत्सू
ने कहा कि
तूने इतना धन
इकट्ठा कर
लिया है, चोरी
नहीं होगी तो
क्या होगा? यह आदमी
कसूरवार है
नंबर दो का, तू कसूरवार
है नंबर एक।
तूने इतना धन
इकट्ठा कर
लिया है कि अब
गांव में किसी
के पास कुछ
बचा ही नहीं, सिवाय चोरी
के कोई उपाय
नहीं रहा।
तूने सारे गांव
की गरिमा छीन
ली है। तूने
गांव में हर
आदमी को चोर
होने को मजबूर
कर दिया है।
सजा तुम दोनों
को मिलेगी, तुम दोनों
जिम्मेवार
हो। तूने
लोगों को चोरी
के लिए मजबूर
किया और यह
मजबूर हुआ......हालांकि
मैं भी इसी
गांव में रहता
हूं, मैं
मजबूर नहीं
हुआ, हालांकि
तू मजबूर मुझे
भी कर रहा है......जिम्मेवार
दोनों हैं, इसलिए सजा
पूरी—पूरी
मिलेगी।
बात
सम्राट के पास
गई। सम्राट
बहुत हैरान
हुआ। इस तरह
का निर्णय न
कभी सुना गया, न
कभी देखा गया!
न आंखों देखा
न कानों सुना।
सम्राट ने लाओत्सू
को बुलाया कि
इस तरह के
निर्णय अगर
हुए, तो
बड़ी मुश्किल
हो जाएगी। तो लाओत्सू
ने कहा कि फिर
मुझे छुट्टी
दे दें।
क्योंकि मैं
तो न्याय ही
कर सकता हूं।
सम्राट ने
छुट्टी कर दी।
क्योंकि
सम्राट
घबड़ाया, कि
अगर साहूकार
चोर है, तो
आज नहीं कल
मेरी क्या
हालत होगी? अगर कल खजाने
में चोरी हो
जाए, तो यह
आदमी तो
खतरनाक है।
जिंदगी
को उसकी पूरी
पृष्ठभूमि
में जब लो, तो
अर्थ कुछ और
हो जाते हैं।
प्रसंग के
बाहर तोड़ लेते
हो। जिस आदमी
ने कुछ बुरा
काम किया है, उसकी
तुम्हें पूरी
जिंदगी पता
नहीं है। शायद
वैसी ही
जिंदगी
तुम्हें भी
मिली होती, शायद
तुम्हें भी
वैसे ही मां—बाप
मिले होते, वैसा ही
स्कूल मिला
होता, वैसे
ही अध्यापक
मिले होते, वैसा ही
गांव मिला
होता, वैसे
ही संगी—साथी
परिवार मिला
होता, तो
शायद तुमने भी
यही किया होता
जो उसने किया है।
तो शायद तुम
भी इससे भिन्न
नहीं कर पाते।
क्योंकि वह भी
मूच्र्छित
है, तुम भी मूच्र्छित
हो। होशवाला
परिस्थिति व्यत्ति
से मुत्त
हो सकता है; लेकिन मूच्र्छित
व्यक्ति तो
परिस्थिति का
शिकार होता
है।
इसलिए
इस व्यर्थ की
चिंतना में मत
पड़ो, कृष्णानंद! समय थोड़ा है!
इस थोड़े समय
में अपने
पत्थर को निखारना
है और हीरा
बनाना है।
सारी ऊर्जा उस
पर लगाओ!
विचार से
मुक्त होना है
और ध्यान में
गति करनी है।
प्रेम को भक्ति
में
रूपांतरित
करना है। देह
को आधारभूमि
बनाना है।
ताकि छलांग लग
सके परमात्मा
में। इन
बहुमूल्य
क्षणों को तुम
क्यों दूसरों
की चिंता में
व्यतीत कर रहे
हो? छोड़ो यह आदत! आदत
पुरानी है, छूटते—छूटते
ही छूटेगी,
मगर अगर होश
रखा तो
निश्चित छूट
जाएगी। ऐसी
कौन आदत है जो
न छूट जाए? हम
ही पकड़ते
हैं तो पकड़
जाती है, हम
ही छोड़ते हैं
तो छूट जाती
है। कोई आदत
हमें नहीं पकड़ती।
मगर हम अजीब
लोग हैं, हम
कहते हैं, कैसे
छोड़ें, आदत
ने पकड़ लिया
है। आदत क्या
तुम्हें खाकर पकड़ेगी!
एक
सूफी फकीर
फरीद से किसी
ने कहा कि मैं
कैसे अपनी बुरी
आदतों को छोडूं? उन्होंने
मुझे बिल्कुल
जकड़ लिया है।
फरीद ने उसकी
बात सुनी, उसको
तो उत्तर नहीं
दिया, उठकर
खड़ा हुआ, पास
में ही एक
खंबा था, खंबे
को पकड़कर
जोर—जोर से
चिल्लाने लगा
कि बचाओ, बचाओ,
छुड़ाओ,
छुड़ाओ! वह आदमी तो
एकदम हैरान हो
गया। बेचारा
जिज्ञासु, आध्यात्मिक
प्रश्न पूछने
आया था और यह
कोई पागल
मालूम होता
है! सामने आंख
के सामने खंबे
को पकड़ लिया
है। उसने कहा
कि मैं तो
सोचता था कि आप
ज्ञानी हैं, आप तो
विक्षिप्त
मालूम होते
हैं। फरीद ने
कहा, ये
बातें पीछे
होंगी, पहले
मुझे बचाओ!
पहले मुझे छुड़ाओ!
उस आदमी ने
कहा, छुड़ाने की कोई
जरूरत ही नहीं
है, खंबा
तुम पकड़े
हो, खंबा
तुम्हें नहीं पकड़े है।
फरीद ने कहा, फिर तो तू
होशियार है।
फिर तू मुझसे
क्या पूछने
आया है? आदतें
तुझे नहीं पकड़े
हैं, तूने
आदतों को पकड़ा
है। रास्ते पर
लग! अगर तुझे
इतनी अक्ल है
कि मुझे बता
सकता है कि खंबा
मुझे नहीं पकड़े
है, तो कौन
तुझे पकड़े
है? तुम्हारी
आदत में कुछ
न्यस्त
स्वार्थ होगा,
उसे देख लो।
तुम
देखना चाहते
हो दूसरों में
बुराई ताकि उनको
छोटा कर सको।
ताकि बड़े
मालूम हो सको।
यह अभी तक
तथाकथित
धार्मिकों की
प्रक्रिया
रही। जाओ किसी
साधु के पास, तथाकथित
महात्मा के
पास और वह
तुम्हें ऐसे
देखता है जैसे
तुम नारकीय
कीड़े हो।
तुम्हारे महात्मा,
पंडित, पुरोहित
यही तुम्हें
समझाते हैं।
यह बड़ी मजेदार
दुनिया है। और
तुम उनका
सत्कार करते
हो और उनके
चरण छूते हो
और वह तुम्हें
यही समझाते
हैं कि हे नरक
के कीड़ो!
वह नरक का ऐसा
वर्णन कर देते
हैं, ऐसा
रंगीन वर्णन
कि आग की
लपटें और कड़ाहे
चढ़े हुए हैं—हमेशा
ही चढ़े रहते
हैं। दुनिया
में इतनी तेल
की कमी है, नरक
के कड़ाहे
अभी भी चढ़े
हुए हैं। और कड़ाहों
में जलाए
जाओगे और
चुराए जाओगे।
आदमी न हुआ
कोई पकौड़ा
हुआ! और एक—से—एक
कष्ट देने की
उन्होंने
ईजादें की
हैं।
मैंने
सुना है, एक
दिल्ली के
राजनेता मरे।
सोचते तो थे
कि स्वर्ग
जाएंगे—दिल्ली
में जो हैं वे
सभी यही सोचते
हैं कि मरेंगे
तो स्वर्ग
जाएंगे। और हम
भी शिष्टाचारवश
जो भी मर जाता
है उसको कहते
हैं, स्वर्गीय
हो गया। तुम
कभी सुनते हो
किसी को कि
नारकीय हो गया?
जो मरे, वही
स्वर्गीय हो
जाता है। तो
फिर नरक किसलिए
बनाया है? तो
ईश्वर कोई मूढ़
है?
सोचता
तो नेता भी था
कि जैसे सभी
स्वर्गीय होते
हैं,
मैं भी। और
पि१३२र मैं
कोई छोटा—मोटा
नेता नहीं हूं—बड़ा
नेता था। मगर
गया नरक। देखा,
दरवाजे पर
लगी तख्ती नरक,
छाती बैठ
गई! और जब
शैतान ने
दरवाजा खोला
और एकदम झटक
कर भीतर खींच
लिया नेता को—नेता
बहुत गिड़गिड़ाने
लगा, बहुत
खुशामद करने
लगा—शैतान ने
कहा कि तुम गांधीवादी
नेता हो, खादी
पहनते हो, चरखा
चलाते हो, इसलिए
तुम पर थोड़ी
दया करूंगा।
इतना कर सकता
हूं तुम्हारे
लिए कि नरक
में तीन
हिस्से हैं, तुम चुन लो।
जिस हिस्से
में तुम्हें
रहना हो। मैं
तीनों में
तुम्हें
भ्रमण करवा
देता हूं। पहले
हिस्से में ले
गया, वहां
तो बड़ा भयंकर
कृत्य चल रहा
था—चढ़े हुए थे
वही पुराने कड़ाहे, और
आदमी पकौड़ों
की तरह तले जा
रहे थे। नेता
ने कहा कि
नहीं—नहीं, यहां नहीं, वैसे ही
मुझे पकौड़े
पसंद नहीं
हैं। मैंने
कभी खाए भी
नहीं।
दूसरी
जगह ले जाया
गया। वहां बड़े
कीड़े—मोकोड़े
आदमियों में
घूम रहे थे, छेद
करके इधर से
निकल रहे, उधर
से निकल रहे, आदमियों को
बिल्कुल छेद—छेद
कर डाला था।
नेता ने कहा
कि नहीं—नहीं।
कीड़े—मकोड़े?
मैं दिल्ली
में रहने का
आदी हूं, मच्छरदानी
लगा कर सोता
हूं, पि१३२लट
छिड़कवाता
हूं, यह
मुझसे नहीं
सहा जाएगा।
तीसरी
जगह ले जाया
गया। हालत तो
वहां भी खराब थी, लेकिन
दो से अच्छी
थी। वहां
हालात ये थे
कि मल—मूत्र
भरा हुआ था और
लोग खड़े हुए
थे मल—मूत्र
में, गले
तक मल—मूत्र, और कोई चाय
पी रहा है और
कोई काफी पी
रहा है और कोई
कोकाकोला पी
रहा है। और
लोग आ रहे
हैं। और उनको
कोकाकोला और
काफी और फेंटा
और जो—जो वे
मांग रहे हैं,
उनको दिए जा
रहे हैं।
हालांकि बास
बहुत थी, दुर्गंध
बहुत थी, मगर
नेता भी बड़ा
नेता था और एक
चीज का
अभ्यासी था—स्वमूत्र
पीता रहा था।
तो उसने कहा, चलेगा! अरे, अपना हुआ कि
पराया हुआ, सब एक ही है।
और जब स्वमूत्र
से नहीं डरे
तो मल से भी
क्या डरना? एक कदम और
सही! और फिर कम—से—कम
यहां जो चाहिए
वह मिलता है।
कोकाकोला तो
दिल्ली में भी
नहीं मिलता!
उसने कहा यही
चुन लेता हूं।
फिर कोई चौथा
नरक का हिस्सा
था भी नहीं।
लेकिन जैसे ही
अंदर गया, बदबू
में खड़ा हुआ
और कहा, कोकाकोला, तभी घंटी
बजी जोर से और
शैतान ने कहा
कि समय खत्म, चाय पीने का
समय खत्म, अब
सब अपने सिर
के बल खड़े हो
जाएं।
नरक तो
नरक ही है।
इसलिए
नेतागण
शीर्षासन का
अभ्यास करते
हैं। कि अगर
कहीं ऐसी नौबत
आ जाए, तो
शीर्षासन कर
लिया और
प्राणायाम
साध कर खड़े हो
गए।
बड़ी
ईजादें हैं
नरक में। वे
किसने ईजादें
की हैं? वे
तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं
ने। वह तुम्हें
बताने को कि
तुम्हारी
अवस्था क्या
होगी? और
उन्होंने
अपने लिए भी
इंतजाम कर रखा
है, स्वर्ग
में। वहां
शराब के चश्मे
बहते हैं। ऐसे
क्या कुल्हड़—कुल्हड़
पीना! यहां "प्राहिबिशन"
है, यहां
शराब पर बंदी
है और यहां सब
महात्मा शराबबंदी
के पक्ष में
हैं, कि
शराब तो पीना
ही मत और
इन्हीं महात्माओं
ने बहिश्त में
मालूम है, शराब
के चश्मे बहा
रखे हैं—झरने!
दिल खोल कर
पीओ! पीओ ही
क्यों, तैरो! डुबकी
मारो। नहाओ।
यही
महात्मा यहां
कहते हैं कि
स्त्री नरक का
द्वार है और
स्वर्ग में
इन्होंने
अप्सराएं बना
रखी हैं।
अप्सराएं
क्या पुरुष
हैं?
ये
अप्सराएं! आखिर
में स्वर्ग
में भी नरक का
द्वार है, इसका
मतलब साफ हुआ
कि स्वर्ग में
से भी एक दरवाजा
है। सावधान
रहना! और
अप्सराएं भी
क्या बनाई
हैं! स्वर्ण
की उनकी देह
है, पसीना
उनकी देह से
नहीं निकलता।
और अप्सराएं भी
क्या! सब सोलह
साल पर ठहर गई
हैं।
दो
महिलाएं एक
प्रदर्शनी को
देखने गई थीं।
वहां एक जुए
का अड्डा भी
था। वहां नंबर
कोई भी चुन लो
और एक गोल चाक
या उसको घुमा
दो;
अगर
तुम्हारे
नंबर पर रुक
जाए तो तुमने
पैसे जितने
लगाए हैं, उससे
दस गुने
पैसे तुम्हें
मिलें। पहली
महिला तो बड़ी
आतुर थी दांव
लगाने को, लेकिन
दूसरी ज़रा
डांवाडोल हो
रही थी। पहली
ने कहा, क्यों
डांवाडोल हो
रही है इतनी? अरे, जाएंगे
दस—पांच रुपए
और क्या? आए
तो दस गुने,
गए तो गए!
इतनी क्या घबड़ाती
है? उसने
कहा, नहीं,
मेरी घबड़ाहट
जुआ नहीं है, मेरी घबड़ाहट
यह है कि नंबर
कौन—सा चुना
जाए? तो उस
महिला ने कहा,
अगर मेरी मान,
तो मैं तो
हमेशा अपनी
उम्र का नंबर
चुनती हूं। और
इसने मुझे कभी
धोखा नहीं
दिया है। तो
दूसरी ने कहा,
ठीक, तो
उसने तेईस साल
तो उसने तेईस
नंबर पर पचास
रुपए लगाए।
चाक घूमा और
छत्तीस पर आकर
रुका। उस
महिला ने कहा
कि हाय राम, चके
को कैसे पता
चला? ...... थी
तो छत्तीस की
ही। ...... यहां
स्त्रियां
धोखे देती
रहती हैं।
बहुत दिन तक
धोखा देती
रहती हैं।
जितने देर तक
खींच सकती हैं,
खींचती
हैं। मगर
अप्सराएं
सोलह पर रुकी
हैं सो रुकी
हैं।
भारत
में सोलह साल
अप्रतिम
सौंदर्य की
साल समझी जाती
है। तो वहीं
रोक दिया अप्सराओं
को। सदियों से
वहीं रुकी
हैं। ये सोलह
साल की अप्सराएं, ये
स्वर्ण—देहें,
ये शराब के
झरने! वृक्षों
में फूल नहीं
लगते, हीरे—जवाहरात
लगते हैं। और
कल्पवृक्ष, कि जिनके
नीचे बैठो, जो आकांक्षा
करो, तत्क्षण
पूरी हो जाए।
यह महात्माओं
ने अपने लिए
इंतजाम कर रखा
है।
आदमी
का अहंकार
अद्भुत है।
यहां ज़रा—सा
छोड़ते हैं तो
वहां हजार
गुना पाने का
आयोजन कर लेते
हैं। असल में
हजार गुना
पाने के लिए ही
छोड़ने की
हिम्मत
जुटाते हैं।
यह सब सौदा
है। यह सब लोभ
का ही विस्तार
है। यह सब
वासना का ही खेल
है। इससे धर्म
का कोई लेना—देना
नहीं। ये
धार्मिकों की
कल्पना नहीं
है स्वर्ग और
नर्क, ये
अधार्मिकों
की कल्पना है।
अगर अहंकार
इसमें मजा
लेता है कि
दूसरे को नरक
में डाल दो और
स्वर्ग में
चले जाओ। पूरे
वक्त तुम इस
कोशिश में लगे
रहते हो कि
अपने को दिखाऊं
श्रेष्ठ। धन
हो तो धन से दिखाऊं,
ज्ञान हो तो
ज्ञान से दिखाऊं,
पद हो तो पद
से दिखाऊं,
मगर कुछ भी
न हो तो कम—से—कम
त्याग से दिखाऊं।
क्योंकि
दुनिया में पद
पाना इतना
आसान नहीं।
बड़ा संघर्ष है,
गलाघोंट
प्रतियोगिता
है।
राष्ट्रपति
तो कोई एक हो
सकेगा, साठ
करोड़ का
देश! साठ करोड़
राष्ट्रपति
होने को
उत्सुक हैं। बिड़ला—टाटा
भी कुछ थोड़े—से
लोग ही हो
सकेंगे। और
ज्ञान भी
संग्रहीत करना
कुछ आसान
नहीं! सदियों
श्रम करो तब
कहीं अल्बर्ट
आइंस्टीन की
योग्यता
पाओगे। लेकिन
त्याग आसान
है।
त्याग
में एक बड़ा
मजा यह है कि
कुछ न भी हो
तुम्हारे पास, तो
भी तुम त्यागी
हो सकते हो।
कुछ न भी हो तो
भी त्यागी हो
सकते हो। और
त्याग में कोई
स्पर्धा भी
नहीं है, कोई
संघर्ष भी
नहीं है, कोई
प्रतियोगिता
भी नहीं है।
कोई योग्यता
की भी जरूरत
नहीं है—कोई
यह भी नहीं
पूछता कि भाई,
मैट्रिक पास हो कि
नहीं? कोई
यह भी नहीं
पूछता कि
ज्ञान कितना?
कि कौन—सा
पद त्यागा? कितने हाथी—घोड़े
थे? कितने
हीरे—जवाहरात
थे? त्याग
दिखता है सब
से सुगम।
इसलिए इस देश
में जो मूढ़ों
की बड़ी जमात
है, उसने
त्याग को चुन
लिया। लेकिन
त्याग भी अहंकार
को उतना ही
भरता है। और
भी ज्यादा
भरता है।
इस देश
में पचास लाख
साधुओं की
जमात है। इन
पचास लाख में
तुम्हें शायद
ही एकाध मिले
जिसकी आंख में
चमक है, प्रतिभा
है। शायद ही
एकाध आदमी
मिले जिसके प्राणों
में कोई धार
है। शायद ही
कोई एकाध आदमी
मिले जिसके
जीवन में कोई
सुगंध है
परलोक की। कि
परमात्मा की
कोई उपस्थिति
का आभास हो। भगोड़े
हैं। किसी की
पत्नी मर गई, वह संन्यासी
हो गए।
उन्होंने
देखा कि अब
क्या करेंगे?
किसी का
दिवाला निकल
गया, पहले
आत्महत्या की
सोची, फिर
उतनी हिम्मत
नहीं जुटा पाए,
संन्यासी
हो गए। सोचा
कि चलो, यह
आत्महत्या का
ही एक सुगम
उपाय है। और
बड़ा मजा यह है
कि जिस आदमी
को तुम बर्तन मलने की
नौकरी भी न
दोगे, वह
भी अगर घर—द्वार
छोड़ दे—घर—द्वार
के नाम पर भी
कुछ नहीं, कोई
झुपड़पट्टी
होगी—तो तुम
उसके पैर छुओगे,
पैर दाबोगे।
महात्मा की
सेवा करोगे।
एक जैन
मुनि मुझसे
कहे कि आप की
बातें मुझे समझ
में तो आती
हैं,
और मैं छोड़
देना चाहता
हूं यह चक्कर
मुनि होने का,
मैं भी सीधा,
सरल, ध्यान
का जीवन
बिताना चाहता
हूं, मगर
अब बहुत देर
हो गई है।
मैंने कहा, अभी क्या
देर हो गई है? सुबह का
भूला सांझ भी
घर आ जाए तो
भूला नहीं कहाता।
माना कि आपकी
सांझ होने लगी
है, सत्तर
साल की उम्र
हो गई, मगर
अभी भी अगर
होश आ जाए तो
कुछ बुराई
नहीं हई। और इस
मुनि होने से
अगर कुछ भी
नहीं मिला है
तो फिर क्यों
उलझे हो? उन्होंने
कहा, मिलने
का सवाल नहीं।
असल में मैं
छोड़ नहीं सकता,
क्योंकि
मैं मुनि पद
छोड़ दूं......इस
मुनि पद के
लिए मुझे कुछ
ज्यादा करना
नहीं पड़ता और
ऐसे भी अब
मेरा चालीस
साल का अभ्यास
हो गया है, इसलिए
कोई अड़चन नहीं
है। एक बार
भोजन करता हूं,
एक बार ही
भोजन करने की
आज्ञा है, मगर
इतना करता हूं
जितना कि
साधारण आदमी
दो बार में भी
न कर सके। और
सब तरह की
सुविधा है।
श्रावक सेवा
करते हैं, श्राविकाएं सेवा करती
हैं, योग्यता
मेरी कुछ है
नहीं, अगर
मैं आज मुनिपद
छोड़ दूं, तो
जो मेरे पैर
दबाते हैं, ये मुझे पैर
दबाने का भी
काम देने को
राजी नहीं
होंगे।
बात तो
मैंने कहा कि
गणित की है!
बात से मैं
राजी हूं।
क्योंकि यही
हालत मैंने
देखी है तुम्हारे
बहुत से
मुनियों की।
अगर वे उनका
मुनि—वेश छोड़
कर तुम्हें
मिल जाएं, तो
तुम उन्हें एक
दफे का भोजन
भी न कराओगे।
तुम उन्हें एक
कपड़ा भी न
दे सकोगे भेंट
में। और अभी? अभी तुम
पालकी
निकालते हो।
शोभायात्रा
होती है। सारा
गांव स्वागत
के लिए जाता
है। इन व्यक्तियों
के चेहरे पर न
तो ध्यान की
कोई आभा, न
आंखों में
विवेक का कोई
तेज, न
प्राणों में शांति
की कोई सुगंध,
क्या
तुम्हें
दिखाई पड़ता है?
ये
तुम्हारे जो
माने हुए नियम
हैं, उनको
पूरा कर रहे
हैं। दिगंबर
जैन—मुनि होता
है, वह
नग्न खड़ा हो
जाए, बस, पर्याप्त!
नग्नता अपने—आप
में जैसे कोई
गुण है! तो फिर
आदिवासी जो
जंगल में नंगे
रहते हैं, उनको
तुम क्यों नहीं
पूजते?
दिगंबर
जैन—मुनि अपने
बाल उखाड़
ले,
केश—लुंच
करे, तो
हजारों लोग
देखने इकट्ठे
होते हैं। कि
महान कार्य हो
रहा है! अब बाल उखाड़ने
में कौन—सा
महान् कार्य
है? कई
पागल करते हैं
बाल उखाड़ने
का काम। और
कभी—कभी
तुम्हारी
पत्नी भी जब ज़रा
विक्षिप्त हो
जाती है तो
बाल खींचने
लगती है......
तुम्हारे
नहीं, अपने
ही खींचती है।
देर नहीं है, जल्दी ही
तुम्हारे भी खींचेगी, समय आ रहा है......
अपने ही बाल
खींचने लगती
है। कई
विक्षिप्त लोग
हैं पागलखानों
में बंद जो
अपने बाल
नोचते हैं।
मगर उसका तुम कोई
सम्मान नहीं
करते। उनका बाल
नोचने में
क्या सम्मान
कर रहे हो? मगर
ये बातें क्या
बहुत
सृजनात्मक
बातें हैं? इनसे कोई
जगत् सुंदर
होता है? सत्यतर
होता है? ज्यादा
आनंदपूर्ण
होता है? कितने
आदमियों ने
बाल नोंच
लिए इससे जगत्
के सौंदर्य
में कुछ
वृद्धि होगी?
परमात्मा
ज्यादा करीब आ
जाएगा? तुम्हारी
अपेक्षाएं
पूरी कर दीं
उन्होंने, फिर
तुम उनकी सेवा
में संलग्न हो
गए।
लेकिन
उनको एक और
मजा आ रहा है
साथ—साथ; बाल नोचे, नंगे
खड़े हैं, वे
महान् हैं।
तुम दो कौड़ी
के हो, तुम
नरक जाओगे, वे स्वर्ग
जाएंगे। वे
तुम्हारी
बुराइयों की ही
चर्चा करते
हैं। वे
तुम्हारी हर
चीज में निंदा
करते हैं।
तुम्हारा
प्रत्येक
कृत्य पाप है।
और उनका
प्रत्येक
कृत्य पुण्य
है। बात इतनी
आसान नहीं है,
जिंदगी
ज्यादा जटिल
है, ज्यादा
उलझी बात है, ज्यादा
रहस्यपूर्ण
है। यहां
कृत्यों से
कुछ तय नहीं
होता, अभिप्रायों
से तय होती
हैं बातें और
अभिप्राय
आंतरिक होते
हैं। कोई आदमी
लोभ के कारण
दान कर सकता
है। तो दान
पाप हो गया।
और कोई व्यक्ति
प्रेम के कारण
दान कर सकता
है। तो दान
पुण्य हो गया।
लेकिन प्रेम
है भीतर कि
लोभ, यह तो
तुम्हारे
अतिरिक्त कोई
भी नहीं जान
सकेगा। कोई
आदमी इसलिए
त्याग कर सकता
है कि भगोड़ा
है, डरपोक
है। जीवन के
संघर्ष से
घबड़ा गया है।
और कोई आदमी
इसलिए त्याग
कर सकता है कि
जीवन को ठीक
से देखा, पहचाना,
जाना, परखा,
कुछ पाया
नहीं। सब कूड़ा—कचरा
है। भागता
नहीं है, लेकिन
कूड़े—कचरे
को क्यों
मुट्ठी में
रखे? छोड़
देता है।
दोनों त्यागी
दिखाई पड़ते
हैं लेकिन
दोनों के
त्यागों का
अर्थ भिन्न—भिन्न
होगा।
कोई
आदमी इसलिए उपवासा
रहता है
क्योंकि
अपेक्षा है
लोगों की कि
तुम उपवास करो, तो
वे सम्मान
देंगे।
सम्मान पाने
के लिए ही उपवासा
रहता है। जैन—मुनि
हिसाब रखते
हैं कि
उन्होंने
कितने उपवास
किए जिंदगी भर
में। हर साल उनका
कैलेंडर
छपता है, जिसमें
खबर होती है
कि उन्होंने
इतने उपवास किए,
फलाने ने इतने
उपवास किए।
किसने ज्यादा
किए , वह
ज्यादा
सम्मानित है।
और
उपवास है क्या?
खुद का
ही मांस—भक्षण
है। और कुछ भी
नहीं। और ये
शाकाहारी लोग
उपवास को इतना
मूल्य दे रहे
हैं,
इन्हें उपवास
की प्रक्रिया
का कुछ पता
नहीं है, कि
उपवास में
आदमी अपने ही
मांस का भक्षण
करता है। अपने
ही मांस को
पचा जाता है।
जब मांस पच जाता
है तो अपने
स्नायुओं को
पचाने लगता
है। जब स्नायु
भी पच जाते
हैं, तो
अपनी
हड्डियां
गलाने लगता
है। धीरे—धीरे
सिकुड़ता
जाता है, वजन
उसका कम होता
जाता है। वजन
कहां जा रहा
है?
एक जैन
मुनि मुझसे
उपवास की बात
कर रहे थे। मैंने
उनसे पूछा कि
जब तुम उपवास
करते हो तो
रोज कितना वजन
कम होता है? उन्होंने
कहा, शुरू—शुरू
में दो पौंड, फिर धीरे—धीरे
डेढ़ पौंड,
फिर एक
पौंड। मैंने
उनसे पूछा कि
दो पौंड वजन
कम होता है तो
तुम्हारा दो
पौंड मांस
कहां गया, मैं
तुमसे पूछता
हूं! वह अपना
सिर खुजलाने
लगे।
उन्होंने कभी
यह सोचा ही
नहीं था।
सोचने
इत्यादि से तो
संबंध ही नहीं
है इन लोगों
को। उन्होंने
कहा, दो
पौंड मांस
कहां गया, मैंने
कभी सोचा ही
नहीं। मैंने
कहा, तुम्हीं
पचा गए, सोचोगे
क्या खाक।
मांसाहार है
यह शुद्ध। अपने
को ही खा रहे
हो। और इसको
कोई धार्मिक
कृत्य बना रहे
हो! और सोच रहे
हो कि इससे
स्वर्ग पहुंच
जाओगे!
कुछ
हिंदू
महात्मा हैं, वे
दूध ही पीकर
जी रहे हैं।
दुग्धाहारी
हैं। सिवाय
दूध के कुछ
नहीं लेते।
मेरे
पास एक दफा एक
महात्मा को
लाया गया।
प्रशंसा में
कहा गया कि ये
दुग्धाहारी
हैं। मैंने
कहा,
होंगे, इसमें
कहने की क्या
बात है? नहीं,
इन्होंने
कहा कि ये सिर्प
दूध ही पीते
हैं। तो मैंने
कहा, पीते
होंगे, यह
उनकी मौज! मगर
इसमें सम्मान
का क्या कारण
है? और
इनकी क्या
खूबी है? उन्होंने
कहा, और तो
इनकी कोई खूबी
नहीं है। तो
मैंने कहा, दूध तो गाय
के बछड़े भी
पीते हैं। और
सच तो यह है कि
बछड़ों के लिए
ही दूध है। ये
कहते हैं गौमाता,
लेकिन गौमाता
से तो पूछो कि
इनको बेटा
मानती हैं कि
नहीं? गौमाता इनको बेटा
नहीं मान सकती,
ये उसके
बेटे के
दुश्मन हैं।
क्योंकि दूध
जो बछड़े के
लिए था, वह
ये महाराज पी
रहे हैं! बछड़ा
भूखा मर रहा
है, गौमाता को इनसे
क्या लेना—देना?
ज़रा किसी बच्चे
की मां को, उसका
दूध बछड़े को
पीने दो, तब
तुम्हें पता
चल जाएगा
असलियत का! कि
वह स्त्री
क्या कहती है,
उस बछड़े को
अपना बेटा
मानती है कि
नहीं? वह
उठा कर डंडा
बछड़े की पिटाई
कर देगी। कि
मेरे बेटे के
लिए जो दूध है,
वह बछड़े के
लिए नहीं है।
लेकिन तुम कहे
चले जाते हो, क्योंकि गौमाता
कुछ बोलती
नहीं, बोल
नहीं सकती, इसलिए
तुम्हें बड़ा
फायदा है, कि
गौ माता है।
लेकिन तुम
उसके बछड़े का
दूध पी रहे
हो। वह दूध
उसके बछड़े के
लिए है।
और वह
दूध खतरनाक
है। मनुष्य को
छोड़ कर कोई पशु—पक्षी
बचपन के बाद
दूध नहीं
पीता।
क्योंकि बचपन
के लिए ही दूध
जरूरी है, उसके
बाद जरूरी
नहीं है, उसके
बाद खतरनाक
है। जैसे ही
कोई भी बच्चा
भोजन पचाने के
योग्य हो गया,
अब उसे दूध
की कोई जरूरत
नहीं है। तीन
साल, चार
साल के बाद वह
भोजन पचाए;
दूध की उसे
क्या जरूरत है?
और फिर यह
दूध पीओगे
तुम गाय का, भैंस का, तो
फिर खयाल रखो!
कि यह दूध बना
है सांड के
लिए। यह
तुम्हें सांड
बना दे, तो
फिर हैरान मत
होना। तो
तुम्हारे
महात्मा अगर
सांड हो जाते
हैं, तो
कुछ हैरानी की
बात नहीं है।
कहते
हैं,
काशी में
तीन ही तरह के
लोग होते हैं : रांड, भांड
और सांड। इन सांडों
में
महात्माओं की
भी गिनती कर
लो।
दुग्धाहारी!
और दूध है
क्या? दूध
मांसाहार है।
क्योंकि शरीर
का हिस्सा है।
जैसे खून शरीर
का हिस्सा, वैसे दूध शरीर
का हिस्सा है।
बच्चा मां का
दूध पीता है, मां का खून
कम होता है।
लेकिन
इन बातों को
करनेवाले लोग :
महात्मा! और
जो ये बातें
नहीं कर रहे
हैं बेचारे, साधारण
रोटी, दाल,
सब्जी से
काम चला रहे
हैं, ये
पापी, ये
नरक जाएंगे!
हमारे मन की
यह इच्छा होती
है हमेशा कि
किसी भी बहाने
हम अपने को
दूसरों से
श्रेष्ठ सिद्ध
कर दें, बस।
इस
आकांक्षा से
मुक्त होओ, कृष्णानंद! यह
आकांक्षा ही
तुम्हें दुःख
में बांधे
रखेगी। इस
आकांक्षा के
जाते ही
अहंकार मर
जाएगा। और धन्यभागी
हैं वे, जिनका
अहंकार मर
जाता है।
क्योंकि
परमात्मा की
सारी संपदा
फिर उनकी है।
उसका सारा
राज्य उनका
है। परमात्मा
उनका है।
आखिरी
प्रश्न :
भगवान, आप
पंडितों के
इतने विरोध
में क्यों हैं?
अविनाश, करुणावश! और तो कोई
कारण नहीं हो
सकता है। जैसे
कोई आदमी गढ्ढे
में गिर रहा
हो और तुम कहो
कि भाई रुको, नहीं तो गढ्ढे
में गिर जाओगे,
तो वह आदमी
तुमसे पूछे कि
आप लोगों के गढ्ढे में
गिरने के इतने
विरोध में
क्यों हैं? तो तुम क्या
कहोगे? यही
कि करुणावश।
कि मुझे दिखाई
पड़ रहा है कि
यह गढ्ढेा
है, तुम्हें
दिखाई नहीं पड़
रहा है और तुम
गिरे जा रहे
हो। अंधे को गढ्ढे से
बचाने में कोई
पाप तो नहीं
है? और इस
जगत् में सबसे
बड़ा गढ्ढेा
पांडित्य का
है। क्योंकि
उस गढ्ढे
में जो गिरा, वह बुद्ध
बनने से वंचित
रह जाता है।
इस
जगत् में सबसे
ऊंचा शिखर
बुद्धत्व है
और सबसे गहरा गढ्ढेा
पांडित्य है।
पांडित्य
का अर्थ होता
है : उधार
ज्ञान।
बुद्धत्व का
होता हैः
स्वयं का ज्ञान।
बुद्ध से ठीक
विपरीत है
पंडित। मैं
पंडित के विरोध
में नहीं हूं।
चाहता हूं कि
लोग गढ्ढे
में न गिरें।
चाहता हूं लोग
उधार ज्ञान पर
न जिएं।
तोते न बनें।
चाहता हूं कि
शास्त्र न दोहराएं, शास्त्र
बनें। चाहता
हूं कि दूसरों
के बासे
शब्द न दोहराएं,
अपनी
अनुभूति को
अभिव्यक्त
करें।
तुम
दूसरों के
पहने हुए जूते
नहीं पहनते, तुम
दूसरों के
पहने हुए कपड़े
पहनने में
सकुचाते हो, लेकिन तुम
दूसरों का
ज्ञान कितने
मजे से ओढ़ लेते
हो! और जूते तो
पैर पर रहते
हैं, जूते
का क्या मूल्य
है! और ज्ञान
तो सिर पर चढ़ जाता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने अपने नौकर
से कहा कि ज़रा
जा और भीतर से
सिरका ले आ।
कोई घंटा भर
बीतने लगा, मुल्ला
ने चिल्लाकर
कहा कि भई, क्या
कर रहा है, सिरका
क्यों नहीं
लाता? आखिर
नौकर जूता ले
कर बाहर आया।
मुल्ला ने कहा,
यह तू क्या
लाया, हमने
कहा था सिरका!
उसने कहा, सिरका
मिला नहीं तो
पैर का ले
आया।
लेकिन
पैर का भी तुम
उधार नहीं
लेना चाहते।
और सिर का? सब
उधार।
तुम्हारी
खोपड़ी में
सिवाय कचरे के
और क्या भरते
हो तुम।
तुम्हारी
खोपड़ी में जब
तक तुम्हारे
जीवन की
ज्योति रोशन
नहीं होती, तब तक जो भी
तुम भरे हो, वह सब कचरा
है। सब गोबर
है—फिर चाहे गौमाता का
ही क्यों न हो!
कोई गोबर
पवित्र नहीं
होता, गोबर
यानी गोबर।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक इंटरव्यू
देने गया था।
इंटरव्यू
लेनेवाले
अफसर ने जो भी
पूछा, उसने
कहा कि मुझे
मालूम नहीं।
मुझे मालूम
नहीं। मुझे
मालूम नहीं।
छोटी—छोटी
बातें, कि
भारत
स्वतंत्र कब
हुआ, उसने
कहा, मुझे
मालूम नहीं।
मुझे यही नहीं
मालूम कि स्वतंत्र
हो भी गया।
आखिर
अफसर को
गुस्सा आ गया
और उसने कहा, तुम्हारे
सिर में गोबर
भरा है क्या? नसरुद्दीन ने कहा, अगर
गोबर भरा है
तो तुम चाट
क्यों रहे हो?
मगर
सिर में कुछ
और है भी
नहीं। लोग एक—दूसरे
का सिरका चाट
रहे हैं। अब
अपने सिर तक
तो अपनी जीभ
पहुंचाना है भी
मुश्किल!? जैसे
जरूरत पड़ती है
तो लोग एक—दूसरे
की पीठ खुजला
देते हैं। ऐसा
जब भी जरूरत
होती है एक—दूसरे
का सिरका चाट
लेते हैं।
पांडित्य
है क्या? वेद
कंठस्थ है, उपनिषद याद
है, गीता ओठों पर
रखी है, कुरान
दोहरा सकते हो,
बाइबिल
मालूम है।
पांडित्य है
क्या? लेकिन
बाइबिल मालूम
होने से क्या
तुम क्राइस्ट
हो जाओगे? या
गीता कंठस्थ
हो जाने से
कृष्ण हो
जाओगे? काश,
इतना सस्ता
होता! काश, बात
इतनी आसान
होती! तो इस
दुनिया को
हमने बुद्धों
से कभी का भर
दिया होता!
फिर इतने
बुद्धू न दिखाई
पड़ते। बुद्ध—ही—बुद्ध
होते। अभी तो
बुद्धू ही
बुद्धू हैं।
जहां देखो
वहीं बुद्धू!
और मैं
पांडित्य के
इसलिए खिलाफ
हूं कि वह जो
बुद्धू में
बड़े "ऊ" की मात्रा
लगी है, वह
काटना चाहता
हूं। ताकि
बुद्ध रह जाओ।
मुल्ला
नसरुद्दीन
इंग्लैंड
घूमने गया।
लंदन हवाई
अड्डे से होटल
की दूरी लगभग
दस मील थी। नसरुद्दीन
को बोर होता
हुआ देख
टैक्सी
ड्राइवर बोला :
"आपको होटल तक
पहुंचने में
करीब आधा घंटा
लगेगा, तब तक
आप कहीं ऊब न
जाएं, इसलिए
आपसे एक सवाल
पूछता हूं; सवाल बड़ा
कठिन नहीं है!"
मुल्ला
ने कहा : "पूछो—पूछो!
मेरे लिए कुछ
कठिन नहीं है?"
टैक्सी
ड्राइवर बोला :"मेरे
मां—बाप की एक
ही संतान है, जो
न मेरा भाई और
न मेरी बहन है;
बताइए वह
कौन है?"
नसरुद्दीन
बड़ी उलझन में
फंस गया। उसने
बहुत सिर मारा, लेकिन
समझ ही न आए कि
ऐसा हो ही
कैसे सकता है!
मां—बाप की
संतान या तो
भाई होगा या
बहन होगी।
अंततः सोचते—सोचते
समय बीत गया, होटल आ गया।
ड्राइवर
ने व्यंग्य से
पूछा : "कहिए, महाशय
जी! मैंने
पहले ही कहा
था न, सवाल
बड़ा कठिन है; अच्छे—अच्छों
को जवाब नहीं
सूझता!"
बेचारे
मुल्ला ने हार
मान ली।
ड्राइवर ने
बताया, "अरे,
सीधी—सी बात
है, मैं
खुद अपने मां—बाप
की संतान हूं,
एकमात्र, मगर न मैं
खुद का भाई
हूं, न खुद
की बहन हूं।"
जब नसरुद्दीन
भारत वापस आया
तो उसके
मित्रों ने
वापस लौटने की
खुशी में एक
पार्टी दी।
मौका मिलते ही
मुल्ला ने
दोस्तों से
वही सवाल
पूछा। वह तो
मौके की तलाश
में ही था।
बोला : "यारो, एक
प्रश्न पूछता
हूं। मेरे मां—बाप
की एक औलाद है,
जो न रिश्ते
में मेरा भाई
लगता है और न
बहन लगती है, तो बताओ वह
कौन है?"
इस
प्रश्न को
सुनकर ढब्बूजी
ने दांतों तले
अंगुली दबा ली, चंदूलाल अपनी चांद
पर हाथ फेरने
लगे और मटकानाथ
ब्राह्मचारी
अपनी भारी—भरकम
तोंद पर। भोंदूमल
से तो फिर कोई
आशा ही न थी।
सबने पराजित
होकर कहा :
मुल्ला, तुम्हीं
जवाब दो, हमारी
तो अक्ल काम
नहीं करती, कि जो
तुम्हारे मां—बाप
की ही संतान
है, किंतु
न तुम्हारा
भाई है, न
बहन है, तो
आखिर वह कौन
हो सकता है
फिर?"
गर्व से
छाती फुलाकर
नसरुद्दीन
बोला : "अरे, वही
लंदन का
टैक्सी
ड्राइवर!"
उधार
ज्ञान बस ऐसा
ही हो सकता
है। वह
तुम्हारी
प्रतिभा
नहीं। वह
तुम्हारी
प्रज्ञा
नहीं। वह
तुम्हारा बोध
नहीं। तुम
दोहरा सकते हो, लेकिन
दोहराने से
तुम्हारे
जीवन में कोई
क्रांति घटित
नहीं हो सकती
है। और मैं
चाहता हूं तुम्हारे
जीवन में
क्रांति घटित
हो। मैं चाहता
हूं तुम्हारे
भीतर पड़ा हुआ
बीज वृक्ष
बने। फूल बने।
वसंत
आया है, इन
वसंत के
अद्भुत
क्षणों में
तुम्हारे
भीतर भी बहार
आ सकती है।
तुम दूसरों के
उधार शब्द में
मत पड़े रहना।
ज्ञान की
फिक्र छोड़ो,
ध्यान की
चिंता लो।
ज्ञान की
जिसने फिक्र की,
वह पंडित हो
जाता है। और
जिसने ध्यान
की चिंता ली, वह बुद्धत्व
को उपलब्ध
होता है। वही
सच्चा ज्ञानी
है, जो
ध्यान को पा
लेता है। वह
झूठा ज्ञानी
है, जो
पंडित होकर रह
जाता है।
पंडितों
से मेरा कोई
विरोध नहीं है—विरोध
मेरा किसी से
भी नहीं है!
यद्यपि मेरी बातें
बहुतों को
लगती होंगी कि
विरोध की हैं।
लेकिन वह ऐसा
ही है जैसे
डाक्टर
तुम्हारे
फोड़े को फोड़े, मवाद
को बाहर
निकाले, तो
पीड़ा होगी। तो
तुम कहीं
डाक्टर से
लड़ने—झगड़ने को
राजी मत हो
जाना।
कुश्तमकुश्ती
न करने लगना!
क्योंकि वह
बेचारा केवल
तुम्हें तुम्हारे
फोड़े से मुक्त
करवाने की
चेष्टा कर रहा
है। चीर—फाड़
भी कर रहा है
तो तुम्हारे
हित में।
मुझे
जो इतनी
गालियां पड़
रही हैं और
पड़ेंगी, वह
इसीलिए कि
लोगों को यह
खयाल नहीं है
कि मैं जो
शल्य—चिकित्सा
कर रहा हूं, वह तुम्हारे
हित में है।
तुम्हारे
कल्याण के लिए।
तुम्हारे
आनंद के लिए।
बुद्धों
को सदा
गालियां पड़ी
हैं,
सदा पड़ती
रहेंगी। यह
स्वाभाविक
है। क्योंकि लोगों
को पता ही
नहीं कि उनकी
दशा क्या है, किस गढ्ढे
में पड़े हैं।
किस मूर्च्छा
में सोए हैं।
लेकिन अपनी
नींद में वे
सपने देख रहे
हैं और हो सकता
है तुम सपना
मधुर देख रहे
हो, और मैं
आ जाऊं और
तुम्हें
हिलाने लगूं
और जगाने लगूं।
तुम्हारा
नाराज हो जाना
भी स्वाभाविक
है। तुम्हारी
नाराजगी को
मैं स्वीकार
करता हूं। लेकिन
फिर भी
तुम्हें हिलाऊंगा।
क्योंकि
तुम्हें बिना
जगाए मैं नहीं
मानूंगा!
जाग कर मैंने
जो जाना है, वह तुम्हें
भी जनाना
चाहता हूं।
जाग कर मैंने
जो जाना है, उसमें
तुम्हें भी
साझीदार
बनाना चाहता
हूं।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें