पत्र पाथय—13
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय
मां,
संध्या!
उदास अंधेरे
को उतरते
देखता हूं।
थके पक्षी
नीड़ो को लौट
चुके। कभी कोइ
भूला पक्षी पर
फड़फड़ाता है।
घरों के ऊपर
धुंआ लटक रहा
है। मैं बगिया
में हूं।
फूलों की
हंसती
क्यारियां
कालिमा में
डूब रही हैं।
एक दिन
ऐसे ही मनुष्य
डूब जाता है।
जीवन अंधेरे
में कहां खो
जाता है. ज्ञात
भी नहीं पड़ता।
इसके पूर्व के
क्षण बहुत
कीमती हैं। एक
क्षण
बहुमूल्य है।
सूर्योदय और
सूर्यास्त के
इस खेल में
अपने को खोया
भी जा सकता'' है, पाया
भी जा सकता है।
गीत और
सदित दोनों
मनुष्य के हाथ
में हैं। सब
कुछ स्वयं पर
निर्भर है।
यह
जीवन अपना ही
निर्माण है।
इसे हम
एक आनंद—उत्सव
बना लें......इसके
लिए यह अवसर
है।
याद
आता है। आप
पूछी थीं, 'मैं आनंद
में अकेला कब
तक खोया
रहूंगा?'
मैं
अखंड आनंद
होना चाहता
हूं। उसे पा
लूं तभी तो दे
सकता हूं? यूं सबके
भीतर वह छिपा
है। आंखें
फिराने की बात
है। जो आंखें
बाहर देखती
रहती हैं, उन्हें
भीतर लौटाना
होता है। भीतर
वही बैठा है
जिसकी ढूंढ
दौड़ बाहर चल
रही है। खूब
छिपकर बैठा है।
बढ़िया आख
मिचौली है।
यह दिख
जाता है तो
संध्या टूट
जाती है।
प्रभात ही
प्रभात फिर
शेष रह जाता
है।
आपका
पत्र मिला है।
बहु सुखद!
चांदा के मेरे
कार्यक्षेत्र
बनाने की बात
लिखी है। आप वहां
है तो क्षेत्र
तो बन ही गया।
यह भी क्या
भगवान को
बताना पड़ेगा ' यह तो मैं
ही बता देता ' फिर भी
मुझसे पहिले
इसने बताया सो
ठीक ही किया।
उसके हाथ
उद्घाटन होना
निश्चय ही शुभ
है।
पिछले
पत्र के लिये
राह देखनी पड़ी।
जानकर ही
दिखाई। मैं सोचता
था कि राह आप
देखेंगी.......खूब
मजा रहेगा।
राह देखने में
भी बड़ा सुख है.......हैं
ना?
सबको
मेरे प्रणाम
रजनीश
के प्रणाम
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