पत्र पाथय—12
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
परिशिष्ट
:
शांता
को –
मां
लिखी हैं कि
मेरे लिए सूत
कात रही हो।
मजबूत कातना
खूब कि बधू तो
छूट न पाऊं! और
अभी नहीं मिल
पाई हो इससे
दुःखी मत होना—जितना
राह देखकर
मिलोगी उतना
ही सुखद होगा।
मेरा बहुत—बहुत
स्नेह।
पारखजी
को —
मां
लिखी हैं कि
आप मेरी भेजी
किताबें
ध्यान से पढ़
रहे हैं। इसे
जानकर मैं
बहुत खुश हूं।
आपसे मिलना एक
गहरा आनंद
मेरे लिए रहा
है। आप
अधिकांशत: चुप
थे पर बातें
तो सबसे
ज्यादा आपसे
ही हुई हैं! मां
के निर्माण
में भी आपकी
लिखावट को पढ़
लिया हूं। वह
छिपी नहीं रह
सकती है। मौन
और शांत एक
आदमी क्या कर
सकता है, यह अनुभव
मुझे हुआ।
इतना सुखद—इतना
मुक्त
दाम्पत्य
जीवन मैंने
कहीं और नहीं
देखा हे। इससे
निश्चय ही
आपको धन्यता
अनुभव होनी
चाहिए। में
जितने समय
आपके यहां रहा
मेरे मन में
यही प्रार्थना
प्रभु से चलती
रही कि मेरे
मन में भारत
का प्रत्येक
परिवार ऐसा
जीवन जी सके।
प्रभु की अनंत
अनुकंपा आप पर
हे।
मां को —
आप
लिखी हो कि
मेरे ‘‘पत्र
की राह में
पलकें राह पर
लगी रहीं
यद्यपि मैं जानता
हूं कि वह
पागलपन के
सिवाय और क्या
हे?'' बढ़िया
बात लिखी।
पागल तो अच्छी
हो। नहीं तो
जीवन में
प्रेम ही कैसे
कर पातीं? प्रेम
तो पागल ही कर
पाते हैं और
जो प्रेम नहीं
कर पाते
उन्हें क्या
कोई जीवित
कहेगा? दो
ही तरह के लोग
दुनिया में।
हैं, पागल
और मृत। तो
तुम सदा ही
पागल ही रहना।
रजनीश
के प्रणाम
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें