दिनांक
14 नवम्बर 1979;
श्री रजनीश
आश्रम, पूना।
प्रश्न
सार:
प्रश्न—01
भगवान, वर्षो
की अभिलाषा
लेकर दर्शन
हेतु गत वर्ष
मैं आश्रम आया
था। प्रातःसमय
प्रवचन में
दर्शन के बाद
मेरे अंदर
नजदीक से दर्शन
करने की प्रबल
आकांक्षा
जाग्रत हुई। इसके
लिए बस एक ही
उपाय था कि
मैं झूठ बोलूं
कि मुझे
संन्यास लेना
है। तभी
निकटता
प्राप्त हो सकती
थी। और वही
मैंने किया।
यहां तक कि
आपने भी पूछा
कि ध्यान करते
हो, तो मैं
झूठ ही बोला
था कि हां, सक्रिय
ध्यान करता
हूं।.........
प्रश्न—02
भगवान, भोर
कब होगी?
प्रश्न—03
भगवान, मैं
जीवन में बहुत
भूलें करती
हूं, वही—वही
भूलें बार—बार
करती हूं, मैं
जानना चाहती
हूं कि मनुष्य
अपनी भूलों से
कुछ सीखता
क्यों नहीं?
प्रश्न—04
भगवान, मैं
मोहित हूं
आपके गीत से।
यह गीत क्या
है जो मुझे
बार—बार आपके
पास खींच लाता
है?
पहला
प्रश्नः
भगवान, वर्षो की
अभिलाषा लेकर
दर्शन हेतु गत
वर्ष मैं
आश्रम आया था।
प्रातः समय
प्रवचन में
दर्शन के बाद
मेरे अंदर
नजदीक से
दर्शन करने की
प्रबल
आकांक्षा
जाग्रत हुई।
इसके लिए बस
एक ही उपाय था
कि मैं झूठ
बोलूं कि मुझे
संन्यास लेना
है। तभी निकटता
प्राप्त हो
सकती थी। और
वही मैंने
किया। यहां तक
कि आपने भी
पूछा कि ध्यान
करते हो, तो
मैं झूठ ही
बोला था कि
हां, सक्रिय
ध्यान करता
हूं।
मैं
निकट से दर्शन
कर वापस चला
गया। कुछ
दिनों के बाद
अचानक मुझमें
परिवर्तन आ
गया। अब मैं तीन
महीने से
गैरिक वस्त्र, माला पहनता
हूं और नियमित
ध्यान भी रम
गया है। यह सब
कैसे
परिवर्तन हो
गया, मुझे
पता नहीं।
लेकिन एक बात
मुझे सदैव
कचोटती थी कि
मैंने भगवान
से झूठ बोला
है, इसके
लिए मैं माफी मांगूं।
आज मैं पुनः
आश्रम में
हूं। मुझे माफ
करें! और जिस
अजूबे ढंग से,
प्रभु, मुझे
आपने रंग डाला
है, इसके
लिए मैं बहुत—बहुत
अनुगृहीत
हूं। आरती की
एक पंक्ति याद
आती है—
प्रेम!
प्रेम! हे
भुवन विमोहन!
छबि के सागर
यद्यपि
तुममें है बस, केवल ढाई
आखर
पर
त्रिलोक को
तूने बांधा
दृढ़ बंधन में,
वह
बंधन, जो
है असूत्र,
अद्भुत
जीवन में,
पुनश्चः
मेरी गल्तियों
को क्षमा करें, प्रभु!
गौरीशंकर
भारती! प्रभु
के रास्ते
सूक्ष्म हैं।
अगोचर, अदृश्य।
कब कैसे तुम
पर जाल फेंकेगा,
कब कैसे तुम
उसके जाल में
फंस जाओगे, शायद
तुम्हें खबर
भी न हो पाए।
तुम्हें पता
भी न चले।
प्रभु के
मार्ग स्थूल
नहीं हैं।
आंखों से
दिखायी पड़ें,
तर्क से समझ
में आएं, ऐसे
नहीं हैं। कब
किस अनजान
रास्ते से
बुलावा आएगा,
कब किस
बहाने तुम
उसके निकट आने
लगोगे, कोई
भी
भविष्यवाणी
नहीं की जा
सकती। ऐसा
तुम्हें ही
हुआ हो, ऐसा
नहीं, सदियों—सदियों
में बहुतों को
हुआ है। सोचा
भी न था और परम
घटना घटी।
सोचने से तो
कभी घटती
नहीं। अनसोचे
आसानी से घट
जाती है।
अंगुलिमाल
हत्यारा था।
बड़ा हत्यारा, बड़े—से—बड़ा
हत्यारा।
उसने कसम खा
रखी थी कि एक
हजार लोगों की
गर्दनें
काटकर उनकी
अंगुलियों की
माला बनाकर
पहनूंगा।
इसलिए अंगुलीमाल
उसका नाम पड़
गया। उसने न—मालूम
कितने लोग
मारे। कहते
हैं, नौ सौ
निन्यानबे
लोग मारे, एक
की कमी थी।
उसकी मां भी
उसके पास जाने
से डरने लगी
थी। क्योंकि
वह ऐसा
हत्यारा आदमी
और एक की ही
कमी बची है, मां से भी
पूरी कर सकता
था। जिस जंगल
में वह रहता
था, वहां
से रास्ते बंद
हो गए, लोगों
ने गुजरना बंद
कर दिया।
सम्राट भी उसे
देखकर उसकी
कल्पना—मात्र
से, उसकी
मौजूदगी की
खबर पाकर थरथर
कांपता था। अकेला
पूरे राज्य को
हिला रहा था।
बुद्ध
उस रास्ते से
गुजरे। गांव
के लोगों ने कहा, आप मत जाएं
उस रास्ते से।
उस दुष्ट का
कुछ भरोसा
नहीं है।
दूसरा रास्ता
है, ज़रा लंबा है, लेकिन
चुनने योग्य
है। नाहक जीवन
को खतरे में
क्यों डालना?
बुद्ध के
भिक्षुओं ने
भी उनको
प्रार्थना की
कि भगवान, वहां
जाने की क्या
जरूरत है? बुद्ध
ने कहा, मुझे
अगर पता न
होता तो शायद
मैं दूसरे
रास्ते से भी
जा सकता था, अब तो पता
है। कोई वहां
न जाएगा, मुझे
तो जाना ही
चाहिए। शरीर
तो ऐसे ही
गिरेगा; चलो,
इस आदमी की
आकांक्षा ही
पूरी हो
जाएगी! उसे एक की
ही जरूरत है, एक शरीर
मेरे पास है।
और यह शरीर तो
जानेवाला है;
किसी के काम
आ जाए, इससे
और शुभ क्या
होगा? थोड़ी
सेवा हो
जाएगी। जो
भिक्षुक सदा
बुद्ध के साथ—साथ
चलते थे, गौरव
अनुभव करते थे
साथ—साथ चलने
में, दिखलाते
थे लोगों को
कि हम बुद्ध
के इतने निकट
हैं, वे भी
पीछे रह गए।
बुद्ध जब
अंगुलिमाल के
पास पहुंचे तो
अकेले थे।
मीलों पीछे
छूट गए थे उनके
शिष्य।
अंगुलिमाल
दूर से ही
चिल्लाया कि
हे भिक्षु, रुक जा! शायद
तुझे पता नहीं
है कि मैं कौन
हूं! बुद्ध
हंसे और
उन्होंने कहा
कि शायद तुझे
भी पता नहीं
है कि मैं कौन
हूं। और मैं
तुझसे कहता
हूं कि मुझे
पता है कि मैं
कौन हूं, तुझे
यह भी पता
नहीं है कि तू
कौन है।
अंगुलिमाल
झिझका, एक
क्षण ठिठका, ऐसा आदमी तो
उसने नहीं
देखा था जो इस
बल से बोले!
फिर भी उसने कहा
कि अच्छा हो
लौट जाओ, जहां
हो वहीं ठहर
जाओ, एक
कदम और आगे
बढ़े कि खतरा
है। बुद्ध ने
कहा, अंगुलिमाल,
मुझे तो
वर्षो हो गए, तब मैं रुक
गया। तू रुक!
अंगुलिमाल ने
कहा कि तुम
विक्षिप्त
मालूम होते
हो।
तुम्हारी
पहली बात से
ही मुझे पता
चल गया कि तुम
विक्षिप्त हो, अब दूसरी से
तो बिल्कुल
प्रमाण मिल
गया। खुद तो
चले आ रहे
मेरी तरफ और
कहते हो तुम
रुक गए हो! और
मुझ रुके हुए
को कहते हो कि
मैं चल रहा
हूं। बुद्ध ने
कहा कि हां; क्योंकि जिस
दिन मेरा मन
रुका, उस
दिन मैं रुक
गया। तेरा मन
अभी चल रहा
है। देह जरूर
ठहरी है। और
मन चल रहा है
तो सारा संसार
चल रहा है।
इसलिए कहता
हूं कि तू चल
रहा है और मैं
ठहरा हुआ हूं।
अंगुलिमाल
को सोचना पड़ा।
बात पते की
थी। बुद्ध
बिल्कुल
सामने आकर खड़े
हो गए। उसके
हाथ उठाना
चाहते थे फरसे
को, उठा नहीं
पा रहे थे। यह
आदमी मारने
जैसा तो नहीं!
इस आदमी के चरणो
में मर जाना
मिल जाए, तो
सौभाग्य है।
लेकिन फिर भी
पुरानी आदत, पुराने
संस्कार, बल
मारे, उठा,
उठाया
फरसा। बुद्ध
ने कहा कि देख,
कुछ जल्दी
नहीं; मुझे
तो तू जब चाहे
तब मार लेना, यह गर्दन तो
कटी ही हुई है,
मैं कुछ भागनेवालों
में से नहीं
हूं, अन्यथा
आता ही नहीं, मगर इसके
पहले कि तू
मुझे मारे, एक छोटी—सी
मेरी
जिज्ञासा है,
वह पूरी कर
दे। उसने पूछा,
क्या? बुद्ध
ने कहा, इस
वृक्ष के, जिसके
नीचे हम खड़े
हैं, कुछ
पत्ते तोड़ दे।
उसने कहा, पत्ते
क्यों? उसने
उठाया अपना
फरसा और एक
पूरी शाखा काट
दी। बुद्ध ने
कहा, बस, आधी आकांक्षा
पूरी हो गयी, आधी और पूरी
कर दे। अब इसे
वापस जोड़ दे!
अंगुलिमाल
बोला, तुम
निश्चित पागल
हो! टूटी शाखा
अब कैसे जोड़ी जा
सकती है? बुद्ध
ने कहा, अगर
जोड़ नहीं सकता,
तो तोड़ने की
जुर्रत भी
नहीं करनी
चाहिए। तोड़ना
तो कोई बच्चा
भी कर सकता था,
जोड़ने की कला ही
कला है। तूने
इतने लोग मारे,
एक चींटी को
भी जिला सकता
है? और
जिसे हम जीवन
न दे सकते हों,
उसे मारने
का हमें हक
क्या है?
जैसे
अंगुलिमाल
सदियों—सदियों
की निद्रा से
जागा। फरसा
हाथ से गिर गया, बुद्ध के
चरणों में झुक
गया, बुद्ध
ने उसके सिर
पर हाथ रखा और कहाः
भिक्षु अंगुलिमाल,
उठो! उसने
कहा, आप
भिक्षु मुझे
क्यों कहते
हैं? बुद्ध
ने कहा, मैंने
दीक्षा दे दी।
मैं ऐसे ही
हिम्मतवर लोगों
की तलाश में
हूं।
अंगुलिमाल ने
दीक्षा मांगी
न थी, झुका
था तब हत्यारा
अंगुलिमाल था,
उठा तब
भिक्षु
अंगुलिमाल
था। बुद्ध ने
कहा, मैंने
तो दीक्षा दे
दी। तू मेरा
संन्यासी हो
गया। चल मेरे
पीछे! अंगुलिमाल,
तू प्यारा
व्यक्ति है!
इतना जल्दी
बहुत कम लोगों
की समझ में
आता है।
अंगुलिमाल ने
कहा, मैं
हत्यारा हूं।
मुझसे ज्यादा
पापी नहीं कोई।
और क्या ढंग
है मुझे
दीक्षा देने
का? मैंने
मांगी नहीं!
बुद्ध ने कहाः
तू मांगे या न
मांगे, तू
पात्र है और
मैं देता हूं।
ऐसे
अंगुलिमाल दीक्षित
हुआ।
और
दूसरे दिन ही
अद्भुत घटना
घटी।
जब शहर
में आया बुद्ध
के साथ, तो
ऐसा भय
व्याप्त हो
गया कि लोगों
ने द्वार—दरवाजे
बंद कर लिए।
जान कर भी कि
वह भिक्षु हो गया
है, लेकिन
पुरानी आदतें!
झपट पड़े किसी
पर, किसी
की गर्दन काट
दे! ऐसे आदमी
का कोई भरोसा
करता है!
लोगों ने
पत्थर मारे
अपने मकानों
पर चढ़कर।
ये बहादुर लोग,
जो रास्ते
पर जाने से
डरते थे, ये
उस निहत्थे
आदमी पर पत्थर
फेंकने लगे।
अंगुलिमाल
पत्थरों की
चोटें खाकर
गिर पड़ा, लहूलुहान
हो गया। बुद्ध
उसके पास झुके
और अंगुलिमाल
से पूछाः
अंगुलिमाल, इन लोगों के
प्रति तेरे मन
में क्या होता
है? उसने
कहा, कुछ
भी नहीं।
करुणा उठती है,
कि बेचारों
को कुछ भी पता
नहीं क्या कर
रहे हैं! अरे, उसे तोड़ रहे
हैं जिसे जोड़
नहीं सकते।
उसे मार रहे
हैं जिसे जिला
नहीं सकते। और
फिर अब आपके
चरणों में
झुककर मैंने
अपने भीतर जो
देखा है, उसकी
कोई मृत्यु
नहीं। बुद्ध
ने कहाः
अंगुलिमाल, अब तू न केवल
भिक्षु है, ब्राह्मण भी
हो गया। हे
भिक्षु, हे
ब्राह्मण, उठ!
मेरे साथ आ!
तूने ब्रह्म
को जान लिया।
सांझ
सम्राट बिंबिसार
को खबर मिली
तो वे बुद्ध
के दर्शन को
आए देखने तो
आए अंगुलिमाल
को, जीवनभर
का दुश्मन था,
लेकिन
बहाना तो
बुद्ध के
दर्शन का था।
बुद्ध के
चरणों में
झुके और कहा, मैंने सुना
है अंगुलिमाल
दीक्षित हुआ!
बुद्ध ने कहा,
नहीं, दीक्षित
हुआ नहीं, दीक्षा
दी गई; प्रसाद—रूप,
पात्र था। बिंबिसार
ने कहा, अंगुलिमाल
और पात्र! तो
फिर अपात्र
कौन है? बुद्ध
ने कहा, अपात्र
कोई भी नहीं
है। जो अपात्र
माने है अपने
को, अपात्र
है। मान्यता
की अपात्रता
है अन्यथा प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर
बुद्धत्व
विराजमान है। ज़रा उकसाओ,
ज़रा राख झाड़ो
और अंगारा
निकल आएगा—दमकता
अंगारा, शाश्वत
ज्योति प्रकट
हो जाएगी।
बिंबिसार
का जैसे लेकिन
अभी समय नहीं
आया था। उसे
इन बातों में
उत्सुकता न
थी। उसने कहा, मैं जानना
चाहता हूं वह
अंगुलिमाल है
कहां? मैं
उसे देखना
चाहता हूं।
जीवनभर की
इच्छा है उसे
देखने की, वह
आज पूरी हो
जाए। बुद्ध ने
कहा, यह जो मेरे
बगल में बैठा
हुआ भिक्षु है,
यह
अंगुलिमाल
है। सम्राट तो
इतना घबड़ा गया
कि उसने जल्दी
से अपनी तलवार
बाहर निकाल
ली। बुद्ध ने
कहा, म्यान
में रखो तलवार
को; अब
इससे डरने की
कोई भी जरूरत
नहीं; तुम
इसके टुकड़े—टुकड़े
भी काट डालो,
तो भी इसके
मन से, इसके
प्राणों से
कोई
दुर्भावना
नहीं उठेगी, आशीष ही बरसेंगे।
यह न केवल
भिक्षु है, यह ब्राह्मण
भी हो गया।
उसने ब्रह्म
को भी जान
लिया है।
लेकिन बिंबिसार
को पसीना छूट
गया।
ऐसे
अंगुलिमाल
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुआ।
कुछ सोचा भी न
होगा, कभी
कल्पना भी न
की होगी, कभी
सपना भी न
देखा होगा।
वाल्मीकि
ने सोचा था? नहीं सोचा
था। अचानक
मिलना हो गया
था नारद से।
नारद को लूटना
चाहता था
वाल्मीकि।
लेकिन नारद ने
कहा, मुझे
लूटे इसके
पहले घर जाकर
एक बात पूछ आ
कि लूटने से
जो पाप लगता
है, घर के
लोग, जिनके
लिए तू लूट
रहा है—पत्नी,
तेरे पिता,
तेरे बेटे—वे
भागीदार
होंगे पाप में?
साझीदार
होंगे पाप
में! वाल्मीकि
हंसा। तब उसका
नाम था वाल्या
भील, वह
हंसा। उसने
कहा, मुझे
धोका देते हो?
इधर मैं
पूछने जाऊं, तुम उधर भाग
जाओ! नारद ने
कहा, मुझे
बांध दो एक
वृक्ष से।
बांधकर गया वाल्या
नारद को, पूछने
घर!
पिता
से पूछा, पिता
ने कहा कि
मुझे क्या
मतलब कि तू
कैसे पैसा
लाता है। बूढ़े
बाप की सेवा
करना तेरा
कर्तव्य है, पाप—पुण्य
तू जान! इसमें
कैसी
साझेदारी? मैंने
कभी तुझसे
पूछा भी नहीं,
न कभी पूछूंगा,
तू कैसे
कमाता है, यह
तू सोच! पत्नी
ने कहा, मुझे
क्या पता; मुझे
विवाह कर लाए थे,
तब से
तुम्हारा
कर्तव्य है कि
मेरी चिंता
करो, मेरी
देखभाल करो।
मैं तुम्हारा
घर संभालती, तुम्हारा
भोजन बनाती, तुम्हारे
बच्चे पालती,
तुम्हारे
पिता की सेवा
करती—और क्या
चाहते हो? इतना
बहुत है। पाप—पुण्य
का हिसाब तुम
समझो! बेटों
ने कहा, हमें
क्या पता? तुमने
जन्म दिया! हम
तो अभी बड़े भी
नहीं हुए।
हमें कुछ पता
भी नहीं किसको
पुण्य कहें, किसको पाप।
आप समझें।
वाल्य
चौंका और
जागा।
लौटा
तो नारद से
कहा, मुझे
क्षमा कर दें,
मैं भूल में
था। वे कोई भी
मेरे पाप में
भागीदार नहीं
हैं। तो अब और
पाप नहीं हो
सकेगा। मुझे
कुछ मंत्र दें,
मुझे कुछ
विधि दें, मुझे
कुछ जीवन—रूपांतरण
की प्रक्रिया
दें। बेपढ़ा—लिखा
हूं, शास्त्र
पढ़ नहीं सकता,
मुझ सरल, सीधे—सादे
आदमी को, ग्रामीण
आदमी को भी
कुछ उपाय हो
तो बता दें। नारद
ने कहा, तो
तू फिर राम—राम
जप!
लौटे
जब नारद तो वाल्या
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया
था, वाल्या नहीं था, वाल्मीकि
हो गया था।
ज्योति बिखर
रही थी उससे।
आभा—मंडल उसे
घेरे हुए था। सैकड़ों
गजों की दूरी
से उसकी सुगंध,
उसका संगीत
नारद को अनुभव
होने लगा। पास
आए तो बहुत चौंके।
वह राम—राम तो
भूल गया था, मरा—मरा जप
रहा था। लेकिन
मरा—मरा जपते
भी!......राम—राम
जोर से जपो, बार—बार जपो,
तेजी से जपोः
राम, राम, राम, राम,
बेपढ़ा—लिखा आदमी
था, भूल—चूक
हो गयी, "रा"
पीछे हो गया,
"म" आगे हो
गया, तो
मरा—मरा जपता
रहा। लेकिन
मरा—मरा जपकर
भी राम को
उपलब्ध हो
गया। जाप में
एक भाव था, एक
श्रद्धा थी, एक सरलता थी,
एक हार्दिकता
थी, एक
प्रेम था।
सोचा होगा वाल्या
ने कभी कि ऐसे
जीवन में
क्रांति हो
जाएगी? नहीं
तुम जानते
परमात्मा कब,
किस द्वार
से तुममें
प्रवेश करेगा?
तुम
ठीक कहते हो, गौरीशंकर,
कि "मैं
वर्षो की
अभिलाषा लेकर
दर्शन के हेतु
आया था।" वह
अभिलाषा भी तो
बीज है। अभिलाषा
प्रगाढ़
हो, तो बीज
टूटेगा, अंकुरित
होगा। तुम
कहते हो कि
"प्रातः
प्रवचन में
दर्शन के बाद
मेरे अंदर
नजदीक से
दर्शन करने की
प्रबल
आकांक्षा
जाग्रत हुई।"
दरस—परस की
आकांक्षा, पास
आने की
अभीप्सा
अनजानी है।
तुम पहचान न
सके उस समय।
जब बीज को कोई
बोता है तो
पता भी तो
नहीं होता कि
कैसे पत्ते
निकलेंगे, कैसे
फूल लगेंगे, वृक्ष कितना
ऊंचा उठेगा, बादलों को
छुएगा कि चांदत्तारों
से बातें
करेगा? कौन
कह सकता है? बीज में तो
सब छिपा होता
है। बीज की
तरह तुम आए थे,
बीज की तरह
ही तुम सरके
पास। तुम कहते
हो, पास
आने का कोई और
उपाय नहीं था,
सिवाय इसके
कि संन्यास
लूं। इसीलिए
तो औरों को
पास आना रोक
दिया है। पास
आना सस्ता न
रह जाए। नहीं
तो तुम बीज के
बीज लौट
जाओगे। पास
आना महंगा
होना चाहिए।
पास आने के
लिए तुम्हें
कुछ झुकना
चाहिए, कुछ
मिटना चाहिए।
इसलिए जैसे—जैसे
मेरे पास
संन्यासियों
की उपस्थिति बढ़ेगी, वैसे—वैसे
मेरे पास आने
के लिए
तुम्हें कीमत
चुकानी होगी।
तुमने सोचा कि
चलो, धोखा
ही दे देंगे!
झूठा ही
संन्यास ले
लेंगे! लेकिन
कई बार ऐसा हो
जाता है कि
धोखा देने
आदमी जाता है
और धोखा खा
जाता है। इस
तरह के धोखे
खतरनाक हैं।
मैंने
सुना है, एक आदमी
ने चोरी की।
घर के लोग जाग
गए, शोरगुल
मच गया, आदमी
भागा। उसके
पीछे घर के
लोग भागे।
रास्ते से
पुलिस वाला भी
पीछे हो लिया।
वह आदमी तो बड़ी
घबड़ाहट
में पड़ गया।
वर्षा के दिन,
नदी के
किनारे आया तो
बाढ़, हिम्मत
न पड़ी कूदने
की। कुछ और
नहीं सूझा,
कपड़े तो
फेंक दिए नदी
में, नंगा
होकर किनारे
पर बैठ गया।
जब तक लोग
पहुंचे, उन
सबने उसे
झुककर
नमस्कार किया
और कहा कि साधु
महाराज, एक
चोर अभी—अभी
यहां आया है, आपने जरूर
देखा होगा।
उस चोर
के भीतर एक
क्रांति हो
गयी! उनका
कहना साधु
महाराज और
उसने सोचा कि
मैं तो सिर्फ
धोखे का साधु
हूं, मेरे
चरणों में झुक
रहे हैं, काश,
मैं सच्चा
साधु होता! एक
आकांक्षा जगी,
न—मालूम किन
जन्मों की सोई
हुई आकांक्षा
रहीं होगी!
फिर उसने चोरी
का रास्ता ही
नहीं छोड़ा, साधारण
संसार का
रास्ता ही छोड़
दिया। फिर तो
वहीं रम गया।
सम्राट
भी एक दिन
उसके चरण छूने
आया। सम्राट
ने पूछा, आप
कहां से आए? कौन हैं? आपकी
प्रतिभा की
बड़ी ख्याति
सुनी है। आपके
सौमनस्य, आपकी
शांति, आपकी
कीर्ति दूर—दूर
तक फैल रही
है। वह हंसने
लगा, उसने
कहा, मत
पूछो। धोखा
देने चला था, धोखा खा
गया। उसने
अपनी कहानी
कही कि हूं
मैं वही चोर।
अब छुपाऊंगा
नहीं। अब
साधुता उस जगह
आ गयी जहां छुपाना
मुश्किल हो
जाता है।
साधुता उस जगह
आ गयी जहां
सत्य ही प्रकट
करना होता है।
था तो चोर, कपड़े
ही फेंके थे, कभी सोचा भी
न था कपड़े
फेंकते वक्त
कि साधु हो जाऊंगा।
कोई और उपाय न
देखकर साधु का
वेश बनाकर बैठ
गया था, नंग—धड़ंग, राख
पड़ी थी घाट पर,
उसी को लपेट
लिया था, लेकिन
जो लोग पीछे
आए थे, पैर
छुए; उन्होंने
मुझे दीक्षा
दे दी
उन्होंने पैर
छुए और मेरी
दीक्षा हो
गयी। वस्त्र
ही नहीं गए नदी
में, चोर
भी बह गया। और
जब मुझे
दिखायी पड़ा कि
झूठे साधु को
भी इतना
सम्मान है, तो सच्चे
साधु को कितना
सम्मान होगा!
बस, मेरे
भीतर कुछ मिट
गया और कुछ
नया उमग आया।
तुमने
संन्यास झूठा
ही लिया था।
इसीलिए तो मैं
फिक्र ही नहीं
करता कि कौन
संन्यास झूठा
ले रहा है, कौन सच्चा
ले रहा है।
मैं कहता हूं,
लेने भी दो।
फिर निपट सुलझ
लेंगे। चलो
झूठा ही सही; चलो अभी इतना
ही बहुत; उंगली
पकड़ में आ गयी,
तो पहुंचा
बहुत दूर
नहीं। बहुतों
को मैं जानता
हूं—तुम अकेले
नहीं हो—जिनको
संन्यास देते
वक्त मुझे
स्पष्ट साफ होता
है कि वे झूठा
ले रहे हैं; लेकिन फिर
भी मेरी आस्था
मनुष्य में है,
मेरे मन में
परम सम्मान है
मनुष्य का, मैं जानता
हूं कि जो आज
झूठा ले रहा
है, वह भी
क्या करे, जिंदगीभर उसकी झूठ से
भरी है, जनम—जनम
झूठ से भरे
हैं, आज
अचानक सत्य का
उसमें आगमन हो
भी कैसे जाए? इस सारी झूठ
की लंबी
प्रक्रिया का
परिणाम यह है
कि वह संन्यास
भी ले रहा है
तो भी झूठ ले
रहा है। इस
सारी
प्रक्रिया की
निष्पत्ति यह
है कि बुरा तो
वह करता ही
रहा है, आज
भला भी करने
चला है तो भी
तन—प्राण से, एकाग्र होकर,
पूरा—पूरा
नहीं कर पा
रहा है। लेकिन
एक बार
संन्यास ले
जाने के बाद
तुम्हारी
जिंदगी में
कुछ—न—कुछ
होना
सुनिश्चित
है। क्योंकि
मुझसे जुड़े।
एक किरण भी
उतर आयी तुम्हारी
अंधेरी रात
में तो भी
काफी है। उसी
किरण का सहारा
लेकर फिर तुम
सूरज तक पहुंच
जाओगे।
ऐसे ही
तुम्हारे
जीवन में घटा।
तुमने मुझसे झूठ
बोल दिया था
कि ध्यान करता
हूं। लेकिन
अच्छे रास्ते
पर झूठ भी सच
हो जाते हैं, गलत रास्ते
पर सच भी झूठ
हो जाते हैं।
ठीक संदर्भ
में झूठ भी
सीढ़ी बन जाता
है, गलत
संदर्भ में
सत्य भी ग१६७ा
हो जाता है।
सारी बात
संदर्भ की है।
आए थे झूठ
संन्यास लेने,
बोल गए थे
झूठ, फिर
वही कचोटने
लगा होगा, फिर
वही काटने लगा
होगा। फिर
बारबार रहकर
लगने लगा होगा,
यह मैंने
क्या किया? संन्यास भी
झूठा लिया? कम—से—कम
संन्यास को तो
छोड़ देता।
संन्यास को तो
झूठ में न
डुबाता। झूठ
बोला कि ध्यान
करता हूं! तुमने
अगर मुझसे कहा
होता कि नहीं
करता हूं, तो
भी कोई अड़चन
नहीं थी; तो
भी कुछ हर्ज न
था; लेकिन
अहंकार यहां
भी झूठ बुलवा
गया।
मैंने
सुना है एक
शराबघर में एक
पहलवान आया।
डटकर उसने
शराब पी, टेबल
पर रखा हुआ
आधा नींबू
उठाया ......पहलवान
था, उसको निचोड़
दिया! एक—एक
बूंद उस नींबू
से निचुड़
गई। फिर उसने
आवाज दी कि है
कोई शराबखाने
में जवांमर्द,
अगर एक बूंद
और उसमें से
रस निकाल दे, तो ये हजार
रुपए! खीसे से
निकालकर हजार
रुपए टेबल पर
पटक दिए। एक
दुबला—पतला—सा
आदमी उठा।......और
लोगों ने तो
देखकर हिम्मत
नहीं किः
क्योंकि उसकी भुजाएं, उसका ढंग, और उसने इस
जोर से निचोड़ा
था नींबू कि
उसमें से एक
बूंद निकलनी
मुश्किल थी।......एक
दुबला—पतला
आदमी उठा और
उसने उठकर उस
नींबू में से
तीन बूंदें निचोड़ दीं,
एक नहीं।
पहलवान भी
चौंक गया; शराब
भी पी थी, वह
भी उतर गयी।
हजार रुपए उस
आदमी ने खीसे
में रख लिए।
पहलवान ने कहा,
मेरे भाई, इतना तो बता
दे कि किस अखाड़े
में रियाज
करता है? उसने
कहा, अखाड़े—मखाड़े
से मुझे क्या
मतलब; मैं
इनकम टैक्स आफीसर
हूं। अरे, मारवाड़ियों से निचोड़
लेता हूं, तो
यह तो नींबू
है, इसमें
क्या रखा है!
मैं
कोई इनकम
टैक्स आफीसर
तो नहीं हूं।
तुम अगर कह भी
देते कि ध्यान
नहीं करता हूं, तो तुमसे
कुछ निचोड़ता
नहीं। मारवाड़ी
भी होते तो भी!
क्या कर सकता
था? लेकिन
अहंकार हर तरफ
अपनी सुरक्षा
करता है। झूठ
बुलवा देता
है।
लेकिन
पीछे पछताए
होओगे।
क्योंकि मुझ
जैसे आदमी से, जिसके साथ
झूठ बोलने का
कोई कारण नहीं,
कुछ लेना—देना
नहीं, उससे
झूठ बोल गए! और
मैंने
तुम्हारे झूठ
पर भरोसा
किया। मैंने
तुम्हारा
झूठा संन्यास
भी अंगीकार
किया।
तुम्हारा
झूठा उत्तर भी
स्वीकार किया।
इससे
तुम्हारे
भीतर एक पीड़ा
उठी होगी। उसी
पीड़ा ने
घनीभूत होकर
धीरे—धीरे
तुम्हें
गैरिक
वस्त्रों में
रंग डाला। यह
होनेवाला था।
उसी ने
तुम्हें माला
पहना दी; उसी
ने तुम्हें
नियमित ध्यान
में भी डुबा
दिया।
क्योंकि झूठा
संन्यास लेकर
भी तुम्हें
शांति की एक
झलक मिली
होगी। खयाल
आया होगा कि
सच्चा
संन्यास! यहां
तुमने
संन्यासी
देखे होंगे
नाचते, गाते,
आनंदित
होते, मस्त,
उन सबकी याद
तुम्हारे मन
में धीमे—धीमे
भीगी—भीगी
सुगंध की तरह
तैरती रही
होगी। यहां
तुमने
संन्यासियों
को ध्यान करते
देखा होगा, ध्यान के
बाद उनकी
आंखों में झांका
होगा, वह
सब तुम्हारे
भीतर एक
परिस्थिति को
निर्माण करता
रहा । हुआ तो
आकस्मिक
तुम्हारे ऊपर
से, लेकिन
शायद जन्मों—जन्मों
की साधना पीछे
हो। शायद पहले
और भी कभी
संन्यासी हुए
हो, बीच से
छोड़ दिया हो।
शायद जन्मों—जन्मों
में कभी और भी
ध्यान किया
हो।
जिंदगी
का एक नियम है
कि यहां हम जो
भी करते हैं, वह कभी खोता
नहीं; वह
हमारे भीतर
संगृहीत होता
चला जाता है।
फिर कभी तार
मिल जाते हैं,
फिर कभी साज
बैठ जाता है, फिर कभी
संगीत उठ आता
है।
फूल
चमन में खिल—खिल
जाए
याद
तुम्हारी जब—जब
आए
संन्यास
है क्या? उसकी
याद। मेरी
उपस्थिति का
और कोई अर्थ
नहीं है, यही
कि उसकी याद
तुम्हें दिला
दूं और
तुम्हारे और
उसके बीच से
हट जाऊं, कि
तुम्हारा हाथ
उसके हाथ में
पकड़ा दूं और
तुम्हारे और
उसके बीच से
हट जाऊं।
फूल
चमन में खिल—खिल
जाए
याद
तुम्हारी जब—जब
आए
याद
तुम्हारी आए
ऐसे
ज्यों
सावन में चमके
बिजली
पिउ—पिउ
बोले प्राण—पपीहा
और
जगाए सुधियां
उजली
गगन
घटाएं घिर—घिर
आए
याद
तुम्हारी जब—जब
आए
ओ
मेरे वासंतिक
वैभव!
कुहुक
तुम्हारी
अमृत घोले
महक
तुम्हारी
जादूगरनी
इस
मस्ती में तन—मन
डोले
सागर
लहर—लहर लहराए
याद
तुम्हारी जब—जब
आए
तुम
मेरे प्राणों
के मधुबन!
मन
भाया गुंजार
तुम्हारा
मनचीता
सौंदर्य
तुम्हारा
मदिराया
संसार
तुम्हारा
मेरे
मन में प्यार
जगाए
याद
तुम्हारी जब—जब
आए
याद
तुम्हारी बड़ी रसीली
बड़ी
रुपहली, बड़ी रंगीली
तन लहकाए, मन बहकाए
याद
तुम्हारी बड़ी
नशीली
आंगन
में शत दीप जलाए
याद
तुम्हारी जब—जब
आए
धीरे—धीरे
याद आने लगी।
धीरे—धीरे एक—एक
कदम परमात्मा
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
करता है। अब
डरना मत! अब
बढ़े जाना! अभी
और भी मंजिलें
हैं। आसमां के
आगे भी और मंजिलें
हैं। पहुंचना
है परम पद तक।
संन्यास तो पहला
कदम है। ध्यान
तो सेतु है, पहुंचना है
उस पार।
पहुंचना है
ऐसी जगह जहां
ध्यान
स्वाभाविक हो
जाए। आ जाती
है वह घड़ी भी एक
दिन; और
ऐसी ही
आकस्मिक आती
है जैसे
संन्यास आया,
जैसे ध्यान
आया। इससे
भरोसा लो; इससे
आस्था लो; इससे
श्रद्धा को संभालो।
तुम अकेले ही
परमात्मा को
नहीं खोज रहे
हो, इससे
सिद्ध होता है
कि परमात्मा
भी तुम्हें खोज
रहा है। तुम
अकेले ही नहीं
चल पड़े हो
उसकी यात्रा
पर, वह भी
तुम्हारी तरफ
निकला है।
सूफी फकीर
कहते हैं: तुम
एक कदम उसकी
तरफ उठाओ, वह
हजार कदम
तुम्हारी तरफ
उठाता है। और
मैं तो तुमसे
कहता हूं: तुम
एक कदम भी न
उठाओ, सिर्फ
पुकार ही उठाओ
और वह भागा
चला आता है।
ध्यान पुकार
है। संन्यास
पुकार को ठोस
रूप देना है।
गौरीशंकर!
शुभ हुआ! माफी
मत मांगो! अगर
तुमने झूठा
संन्यास न
लिया होता तो
माफी मांगने
की बात थी, फिर यह
सच्चा कैसे
घटता! तुमने
अगर मुझसे
झूठा न कहा
होता कि मैं
ध्यान करता
हूं, तो
फिर तुम सच्चा
ध्यान कैसे
करते! माफी
क्या मांगनी!
तुम धन्यभागी
हो कि झूठ
तुम्हें सच तक
ले आया, कि
मिथ्या ने
तुम्हारे लिए
सत्य का मंदिर
उपलब्ध करा
दिया।
इसीलिए
तो मैं पात्र
नहीं पूछता, अपात्र नहीं
पूछता। आते
हैं मेरे पास पुराने
ढब के
संन्यासी कभी,
तो वे कहते
हैं—न आप
पात्र देखते,
न अपात्र
देखते, आप ढाले जाते
हैं। मैं उनसे
कहता हूं: अगर
अमृत पास में
हो तो क्या
सोने के
पात्रों में
ही ढालोगे
तब अमृत होगा?
मिट्टी के
पात्र में भी ढालोगे तो
भी अमृत अमृत
है। अरे, पीने
के लिए सोने
का पात्र हो
कि मिट्टी का
पात्र हो, सब
बराबर है। और
अमृत अमृत
तभी है जब उस
पात्र को भी
अमृत से भर दे
जो जहर से भरा
रहा है। अमृत
जहर से थोड़े
ही हारता है!
जहर अमृत से
हारता है।
इसलिए अपात्र
से अपात्र को
भी मैं
संन्यास देने
को तत्पर हूं।
क्योंकि मैं
जानता हूं जो
मैं दे रहा
हूं उसे, वह
अमृत है; जो
मैं दे रहा
हूं, वह
परमात्मा है।
और परमात्मा
के लिए क्या
सीमा है! उसके
लिए कौन—सी
परवशता है!
तुम झूठ भी
उसे चुन लो, तो भी वह सच
तुम्हें चुन
लेता है। वह
तुम्हारे झूठ
पर भी भरोसा
कर लेता है—उसका
भरोसा तुम पर
इतना है! और
इसी भरोसे में
तुम फंसे; कि
रूपांतरण हुआ,
क्रांति
हुई।
मत
मांगो! क्षमा
मांगने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। तुम धन्यभागी
हो! कि इस
बहाने, मेरे
पास आने के
बहाने
संन्यास ले
लिया; मेरे
पास आने के
बहाने ध्यान
की बात की।
उसी से
तुम्हारे
जीवन में
क्रांति का
सूत्रपात हुआ
है। मेरे
आशीर्वाद
तुम्हारे साथ
हैं। क्षमा
मैं न करूंगा;
क्षमा की
कोई बात ही
नहीं है। तुम
आए। कैसे आए, बैलगाड़ी से आए कि
हवाई जहाज से
आए, क्या
फर्क पड़ता है?
तुम आए। झूठ
पर सवार होकर
आए, कि सच
पर सवार होकर
आए, इससे
क्या फर्क
पड़ता है तुम
आए? एक बार
तुम मेरे पास
आओ, फिर
काम मेरा है।
विवेकानंद
अमरीका जा रहे
थे, तो
राजस्थान में
एक राज—परिवार
में मेहमान
थे। राजा ने
उनके स्वागत में
एक समारोह कियाः
अमरीका जाता
है संन्यासी।
राजा तो राजा!
उसने काशी से
एक प्रसिद्ध
वेश्या भी
बुलवा ली। क्योंकि
समारोह और
बिना वेश्या के
हो, यह तो
उसकी समझ के
बाहर था। नहीं
तो समारोह ही क्या?
वह तो
दीवाली हुई
बिना दीयों
के। वेश्या तो
होनी ही
चाहिए। जब
विवेकानंद को
पता लगा—पता
लगा आखिर—आखिर
में; सांझ
आ गयी उत्सव
की और
विवेकानंद को
ले जाने के
लिए द्वार पर
आकर गाड़ी खड़ी
हो गयी, तब
उनको पता लगा
कि एक वेश्या
भी आई है
समारोह में, वह
विवेकानंद के
सामने नाचेगी—तो
विवेकानंद ने
जाने से इनकार
कर दियाः
कि मैं नहीं जाऊंगा।
मैं संन्यासी
हूं, वेश्या
का नृत्य देखूं!
पास ही
शामियाना था
जहां
विवेकानंद
ठहरे थे, जहां
उत्सव
होनेवाला था।
लेकिन राजा तो
राजा, राजा
ने कहा अब
नहीं आते तो न
आएं, उत्सव
तो चलेगा ही।
अब वेश्या भी
आ गयी, मेहमान
भी आ गए, शराब
भी आ गयी, अब
जलसा तो बंद
नहीं हो सकता;
तो उनके
बिना चलेगा।
जलसा
शुरू हुआ।
लेकिन उस
वेश्या ने बड़ा
अद्भुत गीत
गाया। उसने नरसी
मेहता का एक
भजन गाया। पास
ही था
शामियाना, विवेकानंद
को सुनायी
पड़ने लगा नरसी
मेहता के भजन
उस वेश्या के
टपकते आंसू और
नरसी
मेहता का भजन! नरसी
मेहता के भजन
में यह कहा
गया है कि
पारस पत्थर को
इस बात की
चिंता नहीं
होती कि जो
लोहा वह छू रहा
है, वह
पूजागृह में
रखा जानेवाला
लोहा है या
कसाई के घर
जिस लोहे से
जानवरों की
हत्या की जाती
है, वह
लोहा है। पारस
पत्थर तो
दोनों लोहों
को छूकर सोना
बना देता है।
तो वह वेश्या
अपने गीत में
कहने लगी कि
तुम कैसे पारस
हो? तुम्हें
अभी वेश्या
दिखायी पड़ती
है! मैं तो कितने
भाव लेकर आई
थी, मैं तो
कितने भजन
संजोकर आई थी—वेश्या
सच में भजन
संजोकर आयी
थी। सोचा
वेश्या ने कि विवेकानंद,
संन्यासी
के सामने
नृत्य करना, गीत गाने
हैं, तो मीरां
के भजन लायी
थी, नरसी मेहता के
भजन लाई थी; जीवन को
धन्य समझा था,
कि आज मेरा
नृत्य भी
सार्थक होगा।
विवेकानंद
को बहुत चोट
लगी जब
उन्होंने
सुना यह नरसी
मेहता का भजन।
उठे और पहुंच
गए समारोह में
और वेश्या से
क्षमा मांगी
और कहा, मुझसे
भूल हो गयी।
मेरी गलती।
मैं ही अभी
पारस नहीं हूं,
इसीलिए यह
विचार किया कि
कौन लोहा
पात्र, कौन
लोहा अपात्र।
विवेकानंद ने
कहा है कि उस दिन
मेरी आंख खुल
गयी। उस दिन
से मैंने भेद
करने छोड़ दिए
पात्र—अपात्र
के। वह पुरानी
आदत उस वेश्या
ने छुड़ा
दी। वह वेश्या
मेरी गुरु हो
गयी।
जीवन
बहुत अनूठा
है।
रहस्यपूर्ण
है। कहां से द्वार
खुलेगा
परमात्मा का, कहना
मुश्किल है।
दूसरा
प्रश्नः
भगवान, भोर कब होगी?
रामतीर्थ, भोर तो कब की
हुई ही हुई
है। भोर ही
है। आंख खोलो,
सुबह तो कब
की हो गयी है।
सुबह तो
स्वभाव है अस्तित्व
का। रात तो
यहां होती ही
नहीं। हां, बाहर सूरज
ढलता है और
उगता है। भीतर
न तो सूरज ढलता
और न उगता।
वहां तो सदा
सब जगमग है।
वहां तो सदा
सब
ज्योतिर्मय
है। वहां तो
सदा दीवाली है,
सदा होली
है। वहां तो फ्ाग गायी
जा रही है, गीत
गुन गुनाए
जा रहे हैं, मस्ती बह
रही है। वहां
दीए जले हैं
जो कभी नहीं
बुझते—बिन
बाती बिन तेल।
वहां तो
शाश्वत रास है,
महारास है।
तुम क्या पूछ
रहे हो कि भोर
कब होगी! भोर
तो हुई है।
आंख खोलो,
जागो।
लेकिन
हम अक१३२सर
गलत प्रश्न पूछते
हैं। हम गलत
हैं, हममें
गलत प्रश्न
लगते हैं।
अंधा आदमी
पूछता हैः
प्रकाश कहां
है? बहरा
आदमी पूछता
हैः कैसा
संगीत? बहरा
यह नहीं पूछता
कि मुझे कान
कैसे मिलें? अंधा यह
नहीं पूछता कि
मुझे आंख कैसे
मिले? अंधे
को आंख चाहिए,
बहरे को कान
चाहिए। लेकिन
प्रश्न उनके
बड़े अजीब होते
हैं। बहरा
कहता हैः
संगीत! मैं मानता
ही नहीं कि
संगीत होता
है। जब मुझे
सुनाई नहीं
पड़ता तो कैसे
हो सकता है? लोग झूठ
कहते होंगे।
अंधा कैसे
माने कि प्रकाश
होता है। और
अंधा हजार
दलीलें दे
सकता है।
बुद्ध
एक गांव में
ठहरे थे। उस
गांव के लोग
एक अंधे को
बुद्ध के पास
लाए।
उन्होंने कहा, यह अंधा है, अंधा ही
होता तो भी
ठीक था, बड़ा
तार्किक है।
इसने गांव भर
की नाक में दम
कर रखी है। यह
कहता हैः
प्रकाश होता
ही नहीं। हम आंखवालों
को गलत सिद्ध
कर रहा है।
पूरा गांव एक
तरफ, यह
अंधा एक तरफ
और हम सिद्ध
नहीं कर पाते।
हम थक गए। यह
प्रमाण चाहता
है प्रकाश के।
यह कहता हैः
लाओ मैं उसे
छूकर देखूं।
लाओ, मैं
उसे चखकर देखूं।
लाओ, मैं
उसे बजाकर देखूं।
यह अंधा कहता
है कि अरे, आदमी
दो पैसे की
हंडी खरीदने
जाता है तो
बजाकर देखता
है! कहां है
प्रकाश? गंध
है उसमें कोई
तो सूंघ लूं।
स्वाद है कोई
तो चख लूं।
ध्वनि है कोई
तो सुन लूं। रूप
है कोई तो देख
लूं कहां है
लेकिन? अस्तित्व
है उसका तो
स्पर्श करूं।
मगर न हम इसे
स्पर्श करा
सकते हैं, न
इसे गंध दिला
सकते हैं, न
इसे स्वाद
दिला सकते
हैं। और आंखें
इसके पास हैं
नहीं, इसलिए
देखने का सवाल
ही नहीं उठता।
और प्रकाश तो
केवल देखा जा
सकता है। प्रकाश
छुआ नहीं जा
सकता, चखा
नहीं जा सकता।
प्रकाश तो
तुम्हारे
भीतर एक ही
मार्ग से
प्रवेश कहता
है, वह आंख
है। और चूंकि
हम प्रकाश को
सिद्ध नहीं कर
पाते, यह
अंधा करता है
कि तुम सब
मुझे अंधा
सिद्ध करने के
लिए प्रकाश की
परिकल्पना गढ़ लिए हो!
तुम मुझे
बुद्ध न बना
सकोगे।
हम इसे
आपके पास लाए
हैं, उन लोगों
ने बुद्ध से
कहा, आप
समझा दें।
बुद्ध ने कहा,
अंधा ठीक
कहता है। तुम
गलत हो।
तुम्हारी
गलती इसमें है
कि तुम इसे
समझाते हो; अंधे को
कहीं समझाया
जाता है! अरे, इसे किसी
वैद्य के पास
ले जाओ! मेरा
वैद्य है
जीवक. . .बुद्ध
कभी जब बीमार
हो जाते तो
जीवक उनकी
चिकित्सा
करता था. . .तुम
जीवक के पास
ले जाओ, वह
श्रेष्ठतम
वैद्य है, अगर
आंख का कुछ भी
इलाज हो सकता
है तो जरूर हो
जाएगा।
और
इलाज हो गया।
छः महीने में
उस आदमी की
आंख पर जाली
थी, वह कट
गयी। जब उसकी
आंखें खुल
गयीं, तब
तक बुद्ध
दूसरे गांव जा
चुके थे। छः
महीने में
काफी यात्रा
उन्होंने कर
ली होगी। वह
दूसरे गांव
पहुंचा। उनके
चरणों पर गिरा
और माफी मांगी
कि मुझे माफ
कर दो, मेरी
बड़ी भूल थी।
अगर आप मेरे
गांव में न
आते तो मेरी
जिंदगी यूं ही
विवाद करते—करते
बीत जाती, और
मैं प्रकाश को
कभी जान न
पाता। और
बेचारे मेरे
गांव के लोग
ठीक ही कहते
थे! मगर वे भी
क्या करते! और
मैं भी क्या
करता! मैं
अंधा था, मेरा
अहंकार मानने
को राजी नहीं
होता था कि मैं
अंधा हूं और
उनके वश के
बाहर थी बात।
अब मैं जानता
हूं कि उनके
वश के बाहर की
बात थी कि मैं
जो उनसे
प्रमाण मांगता
था, वे
जुटाने में
असमर्थ थे।
आपने भला किया
जो मुझे
प्रमाण न दिए,
मुझे वैद्य
के पास भेज
दिया।
बुद्ध
कहते हैं
बारबार मैं भी
वैद्य हूं—भीतर
की आंख का।
नानक ने भी
कहा है कि मैं
वैद्य हूं—भीतर
की आंख का। यही
मैं तुमसे
कहता हूं: मैं
भी वैद्य हूं—भीतर
की आंख का।
मत
पूछो
रामतीर्थ, भोर कब होगी!
भोर ही भोर
है। भोर से
अन्यथा कुछ है
ही नहीं।
रोशनी ही
रोशनी है। यह
सारा अस्तित्व
रोशनी से ही
बना है। संत
तो सदा कहे कि
अस्तित्व
रोशनी से बना
है, अब तो
वैज्ञानिक भी
कहने लगे कि
सारा
अस्तित्व
विद्युत से
निर्मित है, रोशनी ही
आधार है, सब
तरफ प्रकाश ही
प्रकाश है, प्रकाश का
सागर है
जिसमें हम जी
रहे हैं, जिसमें
हम पैदा हुए
हैं, जिससे
हम बने हैं और
जिसमें हम लीन
हो जाएंगे।
मगर आंख
चाहिए।
और
अंधे भी नहीं
हो तुम, रामतीर्थ!
भीतर
की दृष्टि से
कोई अंधा पैदा
होता ही नहीं।
अब तक तो मेरे
देखने में
नहीं आया और
अब तक किसी
बुद्ध के
देखने में
नहीं आया है
कि भीतर से
कोई अंधा पैदा
होता है। भीतर
सिर्फ आंख बंद
रखे हैं लोग, बस। तुम
बाहर ही बाहर
देखते हो, देखने
की क्षमता
बाहर ही आबद्ध
हो जाती है और
तुम भूल ही
जाते हो कि यह
देखने की
क्षमता भीतर
भी लौट सकती
है। यह लौट भी
सकती है भीतर,
यह
तुम्हारी
स्मृति से उतर
गयी है बात, बस। इतना ही
करना है कि
यही ऊर्जा जो
आंखों से बाहर
जा रही है, यही
ऊर्जा भीतर
लौटने लगे तो
तीसरा नेत्र—कोई
तीसरा नेत्र
है नहीं, प्रतीक
मात्र है—तीसरा
नेत्र खुल
जाता है। बाहर
को देखने के
लिए दो आंखें
हैं, क्योंकि
बाहर द्वंद्व
है, द्वैत
है, द्वी है। भीतर को
देखने के लिए
एक आंख काफी
है, क्योंकि
भीतर अद्वैत
है, एक है, तो एक आंख
काफी है। ये
दोनों आंखों
से तुमने बहुत
देखा, पाया
क्या? अब ज़रा इन
आंखों को बंद
करो और यही
ऊर्जा भीतर
संक्रमण करे।
ऊर्जा का
अंतर्गमन
ध्यान का ही
रूप है। ध्यान
का कुछ और
अर्थ नहीं, ऊर्जा का
अंतर्गमन, अंतर्यात्रा।
सोए हुए हो
तुम, बस, सुबह तो है, जागो!
रात
के गेसू ता
कमर आए
सोए
हुए को कौन
जगाए
लेकिन
बड़ी मुश्किल
है सोए हुए को
जगाना। क्यों? क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति ने
अपनी नींद में
बहुत—से सपने
संजो लिए हैं!
स्वर्णिम, मधुर,
प्रीतिकर, मधुमय। जागो
तो वे सपने
टूटते हैं। अब
जैसे किसी को
राष्ट्रपति
होना है, उसने
एक सपना बना
रखा है कि अब
चुनाव करीब आ
रहे हैं, कि
प्रधानमंत्री
हो जाऊंगा,
कि अब
राष्ट्रपति
हो जाऊंगा।
अब जैसे कोई
बाबू जगजीवन
राम को जगाने
की कोशिश करे,
तो वे नाराज
तो होंगे ही।
यह कोई वक्त
है जगाने का!
अभी दो—चार
साल तो और सो
लेने दो। अब
तो मौका आया
है कि सपना
साकार होने के
करीब दिखायी
पड़ता है—हालांकि
कोई सपना कभी
साकार नहीं
होता। साकार
होता हुआ
दिखायी ही पड़ता
है, बस।
सपने कहीं
साकार हुए
हैं! सपने
कहीं सत्य हुए
हैं! पहले लोग
सपने देखते
हैं तो जागने
से डरते हैं; और जो जगाए, उस पर नाराज
होते हैं।
तुमने
जीसस को ऐसे
ही थोड़े सूली
दे दी! नाराज किया
होगा जीसस ने।
कसूर जीसस का, तुम्हारा
नहीं। सोयों
को जगाओगे,
उनके सपने
मिटाओगे—कब—कब
से संजो रखे
हैं उन्होंने,
उनको
भस्मीभूत कर
दोगे, उनको
धूलधूसरित
कर दोगे; वे
अभी एक करवट
लेकर और सो
रहना चाहते थे
और तुम उनको
जगाने पहुंच
गए, नाराज
न होंगे तो
क्या करेंगे।
बुद्धों को उन्होंने
सदा गालियां
दीं। कसूर
बुद्धों का
है। बुद्धूओं का
नहीं है।
बुद्धू और कर
ही क्या सकते
हैं! इसलिए तो
जीसस ने मरते
वक्त कहा कि
हे प्रभु! इनको
क्षमा कर देना,
ये जो कर
रहे हैं, इसमें
इनका कोई कसूर
नहीं है; इन्हें
पता ही नहीं
है कि ये क्या
कर रहे हैं।
सुकरात
जहर पीकर मर
गया, लेकिन एक
शब्द भी नहीं
बोला अपने जहर
पिलाने वालों
के खिलाफ।
जानता हैः
कसूर मेरा।
......सीता
है हमारी
संन्यासिनी।
उसके पति हैं,
ज़रा अपनी मौज के
आदमी हैं वे।
लोग समझते हैं
झक्की। वे पास—पड़ोस
के लोगों को
हैरान करते
रहते हैं। दो
बजे रात उठ
आएंगे, बगलवाले को जाकर जगा
देंगे।
पूछेगा कि दो
बजे रात आप क्या
कह रहे हैं? वे पूछते
हैं कि
दूधवाला आया
कि नहीं? दो
बजे रात किसी
को जगाकर
पूछो कि
दूधवाला आया
कि नहीं; कि
अभी तक अखबार
नहीं आया!......उनसे
तो कोई कुछ
नहीं कहता
क्योंकि लोग
समझते हैं
झक्की है, मगर
सीता की जान
खाते हैं लोग
कि अपने पति
को रोकती
क्यों नहीं? मगर वे कोई
रुकने वाले
हैं! वे किसी
से रुक सकते
हैं! वे सारे
मोहल्ले को
हैरान किए
रहते हैं।
बंबई रहते थे,
तो बंबई के
लोग सीता के
पीछे पड़े थे......सीता
यहां रहने लगी
थी......कि इनको
पूना ले जाओ, क्योंकि
हमको परेशान
किए रहते हैं।
वक्त—बेवक्त
आकर हाजिर हो
जाते हैं। और
ऐसा सवाल पूछते
हैं जिसका कोई
मतलब ही नहीं।
दो बजे रात कहां
का अखबार!
कहां का
दूधवाला! आखिर
दूधवाले भी
सोएंगे कि
नहीं? आखिर
अखबार वाले भी
सोएंगे कि
नहीं? और
तुम दूसरों को
नहीं सोने
देते......खुद
उनको नींद
नहीं आती।
वृद्ध हो गए
हैं और दिन भर
आराम करते हैं,
तो नींद आए
भी तो कैसे आए?
साधारण
नींद में भी
तुम्हें कोई
जगाए तो बुरा लगता
है।
मैं
जबलपुर में
रहता था तो
मेरे पड़ोस में
एक पहलवान
रहते थे। वे
तीन ही बजे
रात से उठकर
दंड—बैठक
लगाना शुरू
करते थे। किसी
को भी ट्रेन पकड़नी हो
जल्दी, सुबह
कहीं जाना हो,
तो पहलवान
से कह देते
लोग। मुझे एक
दफा छः बजे ट्रेन
पकड़नी थी
तो मैंने उनसे
कहा कि भाई, पांच बजे
उठा देना।
उन्होंने आकर
मुझे पहले तीन
बजे उठाया।
मैंने कहा, भाई, यह
कोई वक्त है? अभी बहुत
देर है, मुझे
छः बजे की गाड़ी
पकड़नी है!
उन्होंने कहा
कि मैं कहीं
भूल न जाऊं
दंड—बैठक
लगाने में, मैंने कहा
कि पहले दंड—बैठक
लगाऊं उसके
पहले आपको जगा
दूं। चार बजे
फिर मुझे
जगाया। मैंने
कहा कि ......उन्होंने
कहा कि बीच
में मैं थोड़ा
आराम करता हूं
दंड—बैठक के, मैंने सोचा
कि अभी निपटा
आऊं, नहीं
फिर भूल जाऊं।
और पांच बजे
वे भूल ही गए!
जब मैं
सात बजे उठा
तो मैंने उनको
जाकर देखा, तो वे बोले माफ्
कीजिए मैं भी
क्या करू दो—दो
बार आपको
जगाया, आप
उठे नहीं! फिर
मैं भूल गया।
उसी भूलने के
कारण तो आपको
दो बार जगाया,
बेवत्त अकारण, आपकी
नींद खराब की।
साधारण
नींद में भी
कोई जगाएगा, हो सकता है
तुमने ही कहा
है कि जगा
देना, तो
भी नाराजगी
मालूम होती
है। विश्राम
टूटता मालूम
पड़ता है, स्वप्न
टूटते मालूम
पड़ते हैं।
रात
के गेसू ता
कमर आए
सोए
हुए को कौन
जगाए
सांस
की नद्दी
तेज है कितनी
नींद
तलातुमख़ेज़
है कितनी
होश
का साहिल दूर
है जैसे
ज़ीस्त
यहां मजबूर है
जैसे
थक
के जवानी चूर
है जैसे
ऐसी
थकन में कौन सताए
सोए
हुए को कौन
जगाए
हुस्न
के ख्वाब—ए—नाज़
का आलम
फूल
की करवट नींद
की शबनम
पैकर—ए—सीमीं माह—ए—ग़नूदा
जुल्फ़—ए—परीशां निकहत—ए—सूदा
ख्वाब
की मस्ती जाम—ए—रुबूदा
नींद
की गागर कौन
उठाए
सोए
हुए को कौन
जगाए
सांस
की नद्दी
तेज़ है कितनी ......
यहां
जिंदगी भागी
जा रही है
तेजी से; यहां
किसी को रोककर
झकझोरो, जगाओ, तो
वह कहता हैः
ठहरो, मत
मेरी नींद
खराब करो! कुछ
अभी मेरी आकांक्षाएं
हैं, अभीप्साएं
हैं, पूरी
कर लेने दो!
जिंदगी ये गयी,
ये गयी, जाग
लेंगे बाद
में! लोग कहते
हैं: ले लेंगे
संन्यास
बुढ़ापे में; कि स्मरण कर
लेंगे मरते
वक्त
परमात्मा का;
कि चले
जाएंगे काशी,
आखिरी करवट
ले लेंगे वहां,
मगर अभी
नहीं!
सांस
की नद्दी
तेज है कितनी
नींद
तलातुमख़ेज़
है कितनी
और
नींद में
कितनी
आंधियां और
कितने तूफान
उठते हैं! मगर
फिर भी सब तूफ्ान
और सब आंधियों
को टालकर
भी हम सोए
रहते हैं।
होश
का साहिल दूर
है जैसे......
बहुत
दूर है किनारा
होश का।
जीस्त
यहां मजबूर है
जैसे
और
जिंदगी जैसे
मजबूर है नींद
में डूबी रहने
को।
थक के
जवानी चूर है
जैसे
ऐसी
थकन में कौन सताए
सोए
हुए को कौन
जगाए
सवाल
सुबह का नहीं
है। सवाल यह
है कि तुम थके
हुए हो, चूर
हो थकान से, सपनों से
भरे हुए हो—माना
कि आंधियां
हैं, तूफान
हैं—मगर साहिल
होश का बहुत
दूर है, दिखायी
भी नहीं पड़ता,
धुंध में
छिपा है। तुम
बुद्धों की
बातें सुनते
हो, पर
भरोसा थोड़े ही
आता है कि
बुद्ध सच में
कोई हो सकता
है! या अगर कभी
बहुत हिम्मत
करके भरोसा भी
किया, तो
यही भरोसा आता
है कि हां, कोई
हो गया होगा, लेकिन मैं
हो सकता हूं, यह तो असंभव!
हो गए होंगे
गौतम
सिद्धार्थ
बुद्ध और हो
गए होंगे
वर्धमान
महावीर जिन, और हो गए
होंगे कृष्ण
परमात्मा के
अवतार, लेकिन
मैं साधारण
आदमी, मेरी
सीमाएं, मेरी
असमर्थताएं,
मेरी आकांक्षाएं,
मेरी
वासनाएं, मेरी
महत्त्वाकांक्षाएं,
मैं कहां हो
सकता हूं। यह
किनारा बहुत
दूर है। यह
अभी आज अपने
पास आनेवाला
नहीं। आज तो सो
लो, फिर कल
देखेंगे।
इसलिए सुबह
दिखायी नहीं
पड़ती। तुम कल
पर टाले
जाते हो। तुम
रोज—रोज टालोगे।
ऐसे तुमने
सदियों टाला
है। स्थगित
करने की तुम्हारी
आदत हो गयी
है।
और इसी
बेहोशी में
तुम बुद्धों
से भी मिल लिए हो—विश्वास
करो, अनंत—अनंत
यात्रा में
ऐसा नहीं हो सकता
कि तुम्हारा
कभी किसी कबीर
से, किसी
मलूक से, किसी
दादू से, किसी
फरीद से मिलना
न हुआ हो—अनंत—अनंत
यात्रा में न
मालूम कितनी—कितनी
बार तुम बुद्धपुरुषों
के करीब से
गुजर गए होओगे,
मगर
तुम्हें
दिखायी ही
नहीं पड़ा
होगा। तुम ऐसी
नींद में हो
कुछ दिखायी
किसको पड़ता
है!
मैंने
सुना, अमरीकी
एक होटल में
दो बूढी
महिलाएं एक
साथ ठहरी हुई
हैं। उन पर
कोई ध्यान
नहीं देता।
कोई ध्यान दे
भी क्या? लोगों
के ध्यान
जवानी पर अटके
होते हैं। वे
बूढ़ी महिलाएं
इससे बड़ी
दुःखी हैं।
क्योंकि अहंकार
हमेशा ध्यान
की आकांक्षा
करता है, लोग
ध्यान दें।
आखिर एक दिन
उनको इतना
गुस्सा आया कि
लोग इस तरह
व्यवहार कर
रहे हैं जैसे
हम हैं ही नहीं।
होटल में आते
हैं, जाते
हैं, गुजरते
हैं, कोई
देखता ही
नहीं! कोई "हलो"
भी नहीं कहता।
कोई यह भी
नहीं कहता कि
नमस्कार, कहिए
कैसी हो? कोई
देखता ही
नहीं!! लोग
अपने—अपने नशे
में मस्त हैं।
किसको फुरसत
पड़ी है। उनको
इतना गुस्सा
आया, कुछ
करके दिखाना
पड़ेगा। लोगों
का ध्यान आकर्षित
करना ही होगा।
अस्सी साल की बुढ़िया
हैं दोनों।
मगर अमरीका
में यह हो
सकता है। उन्होंने
कपड़े फेंक दिए,
दोनों नग्न
होकर अंदर
होटल में घुसीं
कि अब तो
देखेंगे लोग!
मगर किसी ने
नहीं देखा। सिर्फ
दो बूढ़ों ने
जो एक टेबल पर
बैठे चाय पी
रहे थे, उनने
भर इतना कहा
कि अरे भाई, ये कौन
महिलाएं हैं?
दूसरे ने
कहा, कोई
भी हों, मगर
कपड़े भी किस
जमाने के पहने
हुए हैं! और कम
से कम इस्तरी
तो कर ली होती!
ध्यान
देने वाले भी
मिले तो ऐसे
मिले! उन्हें
भी यह दिखायी
पड़ा कि कम—से—कम
कपड़ों पर थोड़ी
इस्तरी तो कर
ली होती! किस
जमाने के
कपड़े! कौन—सा
रिवाज, किस
ढंग के कपड़े!
किसको
पड़ी है? कौन
देखता है? लोग
अपने—अपने में
खोए हैं, अपने—अपने
में मस्त हैं।
बुद्धों के
पास गुजर जाते
हैं—सोए, नींद
में डूबे।
चेहरे
पे मलाहत
तारी
सांसों
में नशे की
धारी
आंखों
के पपोटे
भारी
होठों
में लहू सा
जारी
कौन
आया, यह
कौन आया
इठलाता
और लजाता
इतराता
और शरमाता
कलियों
को फूल बनाता
फूलों
का रंग उड़ाता
कौन
आया, यह
कौन आया
आंचल
उड़ता सर
धुनता
सांसों
पे निकाबें
बुनता
सारी
का कनारा
चुनता
हर
चीज की आहट
सुनता
कौन
आया, यह
कौन आया
तारों
के महल बनवाऊं
फूलों
के चिराग़ सजाऊं
पलकों
का फ़र्श बिछाऊं
ग़ालिब
के शेर सुनाऊं
कौन
आया, यह
कौन आया
हमें
कुछ दिखायी
नहीं पड़ता।
वसंत पतझड़
हो जाता है, पतझड़ वसंत हो
जाता है; फूल
खिलते हैं, कुम्हला
जाते हैं, गिर
जाते हैं; पक्षी
गीत गाते हैं;
सूरज उगता
है; चांदत्तारों से आकाश भर
जाता है; मगर
हम बेहोश, हम
अपनी आंखें
बंद किए, हम
अपने सपनों
में खोए, हम
अपने विचारों
में लीन, हम
अपने अतीत की
स्मृतियों
में डूबे या
भविष्य की कल्पनाओं
में बस चले जा
रहे हैं, यंत्रवत्। इसलिए
सुबह दिखायी
नहीं पड़ती।
सुबह तो है। भोर
तो है। और सदा
ही है।
फिर
दोहरा दूं, बाहर तो कभी
दिन होता है, कभी रात
होती है, क्योंकि
बाहर द्वंद्व
है। हर चीज का
द्वंद्व है; अंधेरे का, प्रकाश का; जीवन का, मृत्यु
का; सर्दी
का, गर्मी
का; सौंदर्य
का, कुरूपता
का; जवानी
का, बुढ़ापे
का; बाहर
तो हर चीज का
द्वंद्व है।
इसलिए सांझ
होती है, सुबह
होती है। मगर
भीतर तो
निर्द्वंद्व
अवस्था है।
वहां तो एक
ही। वहां न
सुबह है, न
सांझ है; न
दिन है न रात
है; वहां न
गर्मी है, न
सर्दी है; वहां
न मैं है न तू
है। फिर वहां
क्या है? अनिर्वचनीय
शब्दों में न
आए, कुछ
ऐसा है। उसमें
जागना ही
जागना है। और
उसको जानना ही
भोर है। और वह
सदा तुम्हारे
भीतर मौजूद
है।
रामतीर्थ!
भीतर चलो।
बाहर बहुत चल
लिए, पाया
क्या? कब
तक और बाहर की
आकांक्षाओं
ही डूबे रहोगे?
भीतर आओ!
अपने स्रोत को
खोजो! गंगा को
गंगोत्री की तरफ
बहने दो! बहुत
बह चुके बाहर—बाहर,
अब मूल की
तरफ चलो, अब
जड़ की तरफ
चलो। और वहीं
तुम्हें
मिलेगा संतोष,
वहीं
तुम्हें
मिलेगी शांति,
वहीं
तुम्हें
मिलेगा आनंद।
उसे ही हमने
परमात्मा कहा
है, सच्चिदानंद
कहा है, सत्यम्
शिवम्
सुंदरम् कहा
है।
तीसरा
प्रश्नः
भगवान, मैं जीवन
में बहुत
भूलें करती
हूं। वही—वही
भूलें बारबार
करती हूं। मैं
जानना चाहती हूं
कि मनुष्य
अपनी भूलों से
कुछ सीखता
क्यों नहीं?
ज्योति!
मनुष्य जीता
है बेहोशी में, इसलिए
पुनरुक्ति
होती है।
मनुष्य जीता
है यंत्र की
भांति, इसलिए
पुनरुक्ति
होती है।
तुम्हें सिर्फ
भ्रांति है कि
तुम होश में
हो। इसलिए वही—वही
भूलें दोहरती
हैं। कल भी
क्रोध किया था,
परसों भी
क्रोध किया था
और हर बार
क्रोध करके पछताए भी
और हर बार पछताकर
निर्णय भी
लिया कि अब
नहीं, अब
नहीं, बहुत
हो गया! फिर आज
क्रोध किया
है। फिर
पछतावा हुआ
है। क्रोध भी
पुराना है, पछतावा भी
पुराना है।
क्रोध भी
पुनरुक्त होता
है, पछतावा
भी पुनरुक्त
होता है। और
कल फिर तुम क्रोध
करोगी और कल
फिर पछताओगी।
और ऐसे ही
उम्र तमाम
होती। ऐसे ही
सुबह—शाम
होती। एक
बेहोशी है, एक मूर्च्छा
है।
हम इस
भ्रांति में
हैं कि हम
जागे हुए हैं।
यह जागरण
सच्चा नहीं
है।
बुद्धों
ने चेतना की
चार स्थितियां
कही हैं।
जिसको हम
जाग्रत कहते
हैं, उसे वे
कहते हैं:
तथाकथित
जाग्रत।
दूसरी अवस्था
को उन्होंने स्वप्न
कहा है। तीसरी
अवस्था को
सुषुप्ति और चौथी
को सिर्फ चौथी
कहा है, "तुरीय"।
चौथी अवस्था
को वे
वास्तविक
जागरण कहते
हैं। आत्म—साक्षात्कार
वास्तविक
जागरण है। मैं
कौन हूं, इसका
उत्तर
तुम्हें मिल
जाए—गीता से
नहीं, कुरान
से नहीं, बाइबिल
से नहीं, मुझसे
नहीं किसी और
से नहीं, स्वयं
से—फिर
तुम्हारे
जीवन में
भूलें होंगी
ही नहीं, दोहराने
का तो सवाल ही
नहीं उठता। उस
होश से भूलों
का कोई पैदा
होने का उपाय
नहीं है। जैसे
प्रकाश हो तो
अंधेरा नहीं
रहता, ऐसे
ही आत्म—जागरण
हो तो भूलें
नहीं बचतीं। जाननेवालों
की दृष्टि में
एक ही पाप हैः
मूर्च्छा और
एक ही पुण्य
हैः जागृति।
नहीं तो भूलें
तो होंगी।
रेलवे
अधिकारी ने
नौकरी के लिए
आए उम्मीदवार चंदूलाल
का इंटरव्यू
लेते हुए पूछा
: मान लो सुबह—सुबह
तुम रेलवे
लाइन के पास
घूम रहे हो और
तुम देखते हो
कि पटरियां उखड़ी पड़ी
हैं तथा एक
ट्रेन सामने आ
रही है, ऐसी
स्थिति में
तुम क्या
करोगे? जी,
मैं लाल झंडी
दिखाऊंगा,
चंदूलाल ने जवाब
दिया। मान लो
तुम्हारे पास
उस वक्त लाल
झंडी नहीं है,
तब क्या
करोगे? हजारों
यात्रियों की
जान खतरे में
है; बोलो, क्या करोगे?
जी, मैं
कोई लाल कपड़ा
जैसे शर्ट या
रूमाल या कोई
भी वस्त्र
निकालकर झंडी
की तरह हिलाऊंगा।
मान लो
तुम्हारे पास
कोई लाल कपड़ा
भी नहीं है, रूमाल भी
सफेद रंग का
है, तब
क्या करोगे? तब मैं दौड़
कर घर जाऊंगा
और अपनी पत्नी
और बच्चों को
बुला लाऊंगा।
मैं तुम्हारा
मतलब नहीं
समझा, रेलवे
अधिकारी ने
आश्चर्य से
पूछा, बच्चों
और पत्नी को
बुलाकर क्या
करोगे? जी,
बच्चों को
बुलाकर मैं
उन्हें
समझाऊंगा कि
देखो, मैं
कैसी झंझट और
मुसीबत में
पड़ा हूं, चंदूलाल ने कहा, मेरे
प्यारे बच्चो,
तुम लोग कभी
रेलवे की
नौकरी मत
करना। और यदि
किसी को करना
पड़े तो भूलकर
भी कभी सुबह—सुबह
रेल की
पटरियों के
पास घूमने मत
निकलना। फिर
अपनी पत्नी से
कहूंगा कि देख
ले प्यारी, ऐसी
दुर्घटना
तूने जीवन में
देखी भी नहीं
होगी, देख
ही ले! मुफ्त
मनोरंजन भी हो
जाएगा। हल्दी
लगी न फिटकरी,
रंग चोखा हो
जाए।
मैंने
सुना है—ठीक
ऐसी ही घटना—मुल्ला
नसरुद्दीन
ने एक जहाज पर
नौकरी की।
नौकरी के पहले
इंटरव्यू
हुआ। उसका काम
था जहाज का लंगर
उतारना।
अधिकारी ने
पूछा कि आंधी
आ गयी, क्या
करोगे? उसने
कहा कि जहाज
का लंगर पानी
में डाल
देंगे।
अधिकारी ने
पूछा कि आंधी
बहुत भयंकर है,
फिर क्या
करोगे? उसने
कहा, दूसरा
लंगर! अधिकारी
ने कहा कि
आंधी कोई
साधारण आंधी
नहीं है! तो
उसने कहा, तीसरा
लंगर भी डाल देंगे।
अधिकारी ने
कहा कि आंधी
ऐसी है जैसी
कभी देखी नहीं
तुमने। भयंकर
है। प्राण
खतरे में हैं।
जहाज अब डूबा
तब डूबा। तो
उसने कहा कि
चौथा लंगर भी
डाल देंगे।
अधिकारी ने
पूछा कि इतने
लंगर तुम ला
कहां से रहे
हो? तो नसरुद्दीन
ने कहा, इतनी
आंधी और तूफान
आप कहां से ला
रहे हैं? जहां
से आप ला रहे
हैं, वहीं
से हम भी ला
रहे हैं। तुम
भी कल्पना कर
रहे हो, हम
भी कल्पना कर
रहे हैं। न
हमें कोई आंधीत्तूफान
दिखायी पड़ रहा
है, न कोई
लंगर दिखायी
पड़ रहे हैं।
लोग
कल्पनाओं में
जी रहे हैं।
आज तो
तुम जीते हो
बेहोशी में और
कल की कल्पना
करते हो कि सब
ठीक कर लेंगे।
लेकिन ठीक
करोगे कल और जिओगे आज।
और कल कभी आता
नहीं। जब आता
तब आज। और आज
तो तुम कहते
हो कि अब जो है, ठीक है, गुजार
लो! अब आज आ गया
क्रोध तो ठीक,
लेकिन कल न
करेंगे। मगर
कल आएगा ही कब?
कल कभी आया
नहीं? आता
ही नहीं। कल
असंभव है। जब
भी आता है, आज
आता है। और आज
तो तुम्हें
क्रोध ही करने
की आदत है! और
यही आदत सघन
होती चली जाती
है।
ज्योति!
भूल? पहली तो
बात, दूसरे
जिसे भूल कहते
हैं, जरूरी
नहीं है कि वह
भूल हो। तो
पहला तो विचार
यह करना कि
भूल जिसे
दूसरे कहते
हैं, वह
भूल है भी या
नहीं? पहले
तो इसका
निर्णय करो कि
जो मैं जीवन
जी रहा हूं, वह सच में
इतनी भूल से
भरा है जितना
लोग कहते हैं?
या कि बहुत—सी
भूलें भूलें
नहीं हैं सिर्फ
लोग कहते हैं,
इसलिए मैं
भूलें मानता
हूं। सचाई यही
है। बहुत—सी
बातों में कुछ
भूल नहीं है।
एक
युवक ने मुझसे
आकर कहा कि मैं
क्या करूं? मेरे पिताजी
कहते हैं कि
ब्रह्ममुहूर्त
में उठो। और
यह भूल मुझसे
होती है, कि
ब्रह्ममुहूर्त
में नहीं उठा
जाता। मैं तो सुबह
छह बजे के
पहले नहीं उठ
पाता। और वे
कहते हैं, हर
हालत में पांच
बजे तो उठो ही
अगर चार बजे न
उठ सको। वे
खुद तीन बजे
उठते हैं। तो
मैं क्या करूं?
कैसे इस भूल
से छुटकारा हो?
मैंने उससे
कहा, इसमें
कुछ भूल ही
नहीं है। पहली
तो बात यह कि भूल
है, ऐसा
मानने में ही
भूल कर रहे
हो। अगर नींद
तुम्हारी
स्वभावतः छह
बजे टूटती है,
तो वही
ब्रह्ममुहूर्त
है। कोई जरूरत
नहीं है कि
पांच बजे उठो।
और पांच बजे
अगर जबरदस्ती
उठ आए, तो
उसका
दुष्परिणाम
भोगोगे। दिनभर
उदास रहोगे, थके—थके
लगोगे, आंखें
फीकी रहेंगी,
नींद आती—आती
मालूम होगी। दिनभर ऐसा
ही पाओगे कि
कुछ चूका—चूका,
कुछ छूटा—छूटा,
कुछ उखड़े—उखड़े।
बारबार जम्हाइयां
लोगे, किसी
काम में मन न
लगेगा, सब
काम थकानेवाले
मालूम होंगे।
तुम्हें कोई
जरूरत नहीं
है।
अब
कठिनाई क्या
होती है कि
जैसे ही लोग
वृद्ध हो जाते
हैं, उनकी
नींद कम हो
जाती है।
बच्चा
मां के पेट
में चौबीस
घंटे सोता है।......वह
तो अच्छा हुआ
कि महात्मागण
उनको समझाते
नहीं। महात्मागण
गर्भ में
प्रवेश अगर कर
सकते होते तो
झकझोर के कहते
कि बच्चू!
चौबीस घंटे!
ब्रह्ममुहूर्त
में तो कम—से—कम
जागा करो।......मां
के पेट में
बच्चे को
चौबीस घंटे ही
सोना पड़ता है।
सोना ही
चाहिए। तो ही
वह बड़ा हो
सकेगा। नींद
में ही विकसित
होता है।
क्योंकि नींद
में विराम
होता है। और
सारी क्रियाएं
ठहरी रहती हैं, विकास में
ही सारी ऊर्जा
लगती है। फिर
बच्चा जब पैदा
होता है तो
तेईस घंटे
सोता है; फिर
बाईस घंटे, फिर बीस
घंटे, फिर
अठारह घंटे।
जैसे—जैसे बड़ा
होने लगता है
वैसे—वैसे
उसकी नींद कम
होने लगती है।
फिर आगे एक अवस्था
आती है जब
नींद आठ घंटे
पर रुक जाती
है। जवान
व्यक्ति आठ
घंटे, सात
घंटे
स्वभावतः
सोएगा। सोना
ही चाहिए। फिर
एक उम्र आती
है जब नींद
चार घंटे, पांच
घंटे रह जाती
है। एक उम्र
आती है जब
नींद तीन घंटे,
दो घंटे रह
जाती है। जैसे—जैसे
मौत करीब आने
लगती है, नींद
कम होने लगती
है। बड़ी नींद
करीब आ रही है
अब, छोटी
नींद कम होने
लगती है। और
मौत करीब आ
रही है तो अब
जीवन—ऊर्जा
निर्माण नहीं
करती
तुम्हारे
भीतर। सब निर्माण
बंद हो गया।
अब तो जो टूट
गया सो टूट गया,
फिर से नहीं
बनता। इसलिए
अब नींद की
जरूरत नहीं
रही। नींद
निर्माण की
प्रक्रिया
है।
लेकिन
खतरा क्या है? शास्त्र
लिखे हैं
बूढ़ों ने।
बूढ़े ही घरों
में कब्जा
जमाए बैठे
हैं। उन्हीं
को समझदार
समझा जाता है।
और बूढ़े
बिचारे अपने
अनुभव से कहते
हैं, कि जब
हम तीन घंटा
सोते हैं तो
तुम्हें आठ
घंटे सोने की
क्या जरूरत है?
अरे, हम
बूढ़े होकर तीन
घंटे सोते हैं
और तीन बजे उठते
हैं, तुम
जवान होकर छह
बजे उठ रहे हो!
ऐसा मैंने लोगों
को कहते सुना
है। उनकी दलील
ऊपर से बड़ी
ठीक लगती है, कि हम बूढ़े
होकर तीन बजे
उठ आते हैं और
तुम जवान होकर,
शर्म तो
खाओ! मगर उनकी
बात बिल्कुल
गलत है। अवैज्ञानिक
है। बूढ़े होने
के कारण ही वे
तीन बजे उठ
आते हैं। ज़रा
उनसे यह तो
कहो कि तुम भी
तो छह बजे तक सोकर दिखलाओ।
बूढ़े होकर अगर
यह करके दिखला
दो, तो हम
मानें? तब
उनको कठिनाई
पता चलेगी।
न बूढ़े
छह बजे तक सो
सकते, न
जवान तीन बजे
उठ सकते। अगर
बूढ़े छह बजे
तक सोएंगे तो दिनभर झल्लाए
रहेंगे।
क्योंकि
जबरदस्ती
सोना पड़ा। वह
बंधन रहा। अगर
जवान तीन बजे
उठेंगे, तो
दिनभर झल्लाए
रहेंगे।
तो
जरूरी नहीं है
कि जिसको
भूलें कहते
हैं, वे भूलें
हों। पहले तो
यह निर्णय
करना ज्योति,
कि किन
बातों को भूल
समझा जा रहा
है।
अफ्रीका
में कुछ कबीले
हैं जो एक ही
बार भोजन करते
हैं। अगर कोई
दो बार भोजन
करे, इसको
समझते हैं कि
वह आदमी गलत
काम कर रहा
है। हमारे
यहां दो बार
भोजन को कोई
गलत काम नहीं
मानता। दो बार
सभी भोजन करते
हैं। लेकिन
हमारे यहां
अगर कोई तीन
बार भोजन करे
तो जरूर हम
कहें: थोड़ा
ज्यादा भोगी
है; लंपट
है। खाओ, पिओ, मौज
करो। बस, खाने
ही पीने में
लगा रहता है!
अमरीका में
लोग पांच बार
भोजन करते
हैं। कोई नहीं
कहता लंपट
हैं। कोई नहीं
कहता भोगी
हैं। अपने—अपने
ढंग हैं। और
कोई नहीं
जानता किसका
ढंग बिल्कुल
ठीक है।
अभी
विज्ञान कुछ
तय नहीं कर
पाया।
क्योंकि कुछ
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
उचित यही है
कि थोड़ा—थोड़ा
भोजन लो, कई
बार लो। ताकि
पेट पर ज्यादा
बोझ इकट्ठा न
पड़े। जब तुम
दो बार भोजन
करोगे, तो
अमरीकी जितना
पांच बार में
करता है उतना
तुम दो बार
में करोगे।
आखिर शरीर की
जरूरत तो पूरी
करनी पड़ेगी!
इसलिए अगर
तुम्हारा पेट
बड़ा हो जाए और
शरीर बेढंगा
हो जाए, तो
कुछ आश्चर्य
नहीं है।
जो
कबीला
अफ्रीका में
एक बार भोजन
करता है, बड़ी
हैरानी की बात
है, उन
सबके पेट बड़े
हैं। उनके पेट
तो बिल्कुल ही
स्वस्थ होने
चाहिए, बड़े
नहीं होने
चाहिए।
दिगंबर
जैन मुनि एक
ही बार भोजन
करते हैं, उनके पेट
होने ही नहीं
चाहिए। लेकिन
उनके पेट तुम
बड़े पाओगे।
क्योंकि जब एक
ही बार भोजन
करोगे तो शरीर
उतने में ही
अपनी पूरी
जरूरतें भर
लेना चाहता
है। ज्यादा
भोजन कर लेगा।
पांच
बार भोजन करने
की गलती नहीं
है कुछ। अगर थोड़ा—थोड़ा
भोजन किया जाए, थोड़े—थोड़े
हिस्सों में बांटकर
किया जाए, तो
ज्यादा
उपयोगी है—ऐसा
कुछ वैज्ञानिक
कहते हैं।
लेकिन कुछ
दूसरे
वैज्ञानिकों
का कहना है कि
दो भोजन के
बीच कम—से—कम
छह से आठ घंटे
का फासला होना
चाहिए, ताकि
पहला भोजन
पूरा पच जाए
और पाचन की
प्रक्रिया पर
ज्यादा जोर न
पड़े। अभी इस
पर कुछ वे निर्णय
नहीं कर पाए
हैं।
मेरी
अपनी दृष्टि
यह है कि दोनों
बातें सही हो
सकती हैं। कुछ
लोगों के लिए
पहली बात सही, कुछ लोगों
के लिए दूसरी
बात सही।
लोगों में भी
भेद हैं। तुम
अपनी तरफ
देखो।
तुम्हें जो
ज्यादा
स्वस्थ, ज्यादा
शांत, ज्यादा
सौमनस्य में
रखे, वही
ठीक है।
दुनिया क्या
कहती है, इसकी
फिक्र छोड़ो।
दुनिया ने कुछ
तुम्हारा
ठेका नहीं
लिया है।
दुनिया को
तुमसे क्या
प्रयोजन है? तुम्हें
अपने जीवन का
निर्णय खुद
लेना है। अगर
व्यक्ति अपना
निर्णय खुद ले,
तो मेरी समझ
यह है कि सौ
में से करीब—करीब
नब्बे
प्रतिशत
चीजें तो ऐसी
होंगी जो भूलें
हैं ही नहीं।
लेकिन दूसरों
ने तुम्हें पकड़ा
दीं कि भूलें
हैं।
जैसे
जैन रात्रि
भोजन नहीं
करते। सारी
दुनिया
रात्रि भोजन
करती है। अगर रात्री
भोजन करने से
लोग नरक जाते
हैं, तो सिवाय
जैनियों को
छोड़कर और कोई
स्वर्ग जा नहीं
सकता। और जैनी
तब बड़ी
मुश्किल में
पड़ेंगे स्वर्ग
में! क्योंकि
जैनी कुछ भी
तो नहीं
जानते। न जूते
सी सकते, न
बुहारी लगा
सकते, न कपड़ा
बुन सकते; न
लोहार का काम,
न बढ़ई का
काम; केवल
दुकान पर
बैठकर दुकान
चला सकते हैं।
सो स्वर्ग में
दुकानें ही
दुकानें
होंगी! मगर बेचोगे
क्या, ख़ाक?
बेचोगे किसको? खरीदेगा कौन?
इसलिए
जैन—समाज को
मैं धर्म तो
कहता हूं, संस्कृति
नहीं कहता।
क्योंकि
संस्कृति का अर्थ
होता हैः जो
सब काम करने
में समर्थ हो।
जूता सीएगा,
वह हिंदू
चमार है। कपड़ा
बुनेगा, वह मुसलमान
जुलाहा है।
पहनेगा, वह
जैन है। जो
पाखाना साफ
करेगा, वह
हिंदू है। जो
कपड़े सीएगा,
वह मुसलमान
है। जो
चिकित्सा
करेगा, वह ईसाई
है। अगर जैन
ही अकेले
स्वर्ग जाते
होंगे तो
स्वर्ग में
बड़ी मुश्किल
खड़ी हो जाएगी।
ज़रा
जैनों को कहो
कि एक बस्ती बसाकर
दिखा दो—सिर्फ
जैनों की—तो
मैं मान लूंगा
कि तुम्हारी
कोई संस्कृति
है। नहीं तो
क्या ख़ाक
संस्कृति है!
एक बस्ती सिर्फ
जैनों की बसाकर
दिखा दो! तब
तुमको पता चल
जाएगा। छठी का
दूध याद आ जाएगा।
क्योंकि फिर
कौन वहां भंगी
होगा और कौन
चमार होगा और
कौन दर्जी
होगा और कौन
तेली होगा? तब करना
बैठकर जिनेश्वर
भगवान का
स्मरण! वे भी
उस गांव में न
आएंगे।
सारी
दुनिया
रात्रि भोजन
करती है। तो
अगर कोई रात्रि
भोजन कर रहा
है, तो कोई
ऐसा महापाप
नहीं कर रहा
है कि नरक चला
जाएगा! और
महावीर ने जब
कहा था यहष्ठ
......मैं
कलकत्ते
में एक मित्र
के घर मेहमान
था—सोहनलाल
दूगड़। एक
बड़े, भारत
के
प्रतिष्ठित
बड़े—से—बड़े
धनी जैनों में
से एक थे। बड़े
हिम्मतवर आदमी
भी थे। तभी
मुझे अपना मेहमान
बना सके!
क्योंकि मुझे
अपने घर में
निमंत्रण
करना खतरे से
खाली नहीं है।
सारे जैनों के
विरोध में भी
उन्होंने कहा,
कोई फिक्र
नहीं। मैंने
उनसे
एअरपोर्ट पर
कहा भी कि आप
मुझे ठहराते
तो हैं, लेकिन
आप झंझट में
पड़ेंगे।
उन्होंने कहा
कि आप जानते
हैं, मैं
जुआरी हूं।
सारा
हिंदुस्तान
जानता है कि
मैं सटोरिया हूं।
सट्टा मेरा
धंधा है। और
सब तरह के
दांव लगाए, यह भी
लगाऊंगा।
हालांकि मुझे
खबर आई है जैन—मुनियों
की तरफ से कि
उनको घर में
मत ठहराओ। पूरा
घर एअर
कंडीशंड था।
उसमें एक
मक्खी नहीं, एक मच्छर
नहीं। मगर
रात्रि भोजन
नहीं। रात
पानी भी नहीं
पीते। महावीर
ने जब कहा था
कि रात्रि
भोजन मत करो, तो बिजली
नहीं थी। घरों
में दीए भी
नहीं थे; मिट्टी
का तेल भी
नहीं था; और
तो और लोग
अंधेरे में
भोजन करते थे,
जैसे अभी भी
कई गांवों में
करते हैं लोग,
अंधेरे में
ही भोजन करते
हैं। अंधेरे
में भोजन
करोगे, मक्खी,
मच्छर, झींगुर,
कुछ भी गिर
जाए! वह
स्वास्थ्य के
लिए भी बुरा है।
भोजन विषाक्त
भी हो सकता
है। और
हिंसात्मक भी
है, क्योंकि
उस कीड़े—मकोड़े
की जान गयी।
तुम्हें भी
हानि। तो
महावीर ने कहा
था, रात्रि
भोजन मत करो।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि अगर
महावीर अब आएं, तो जरूर
कहेंगे कि जब
बिजली घर में
है, बराबर
भोजन कर सकते
हो, कोई
अड़चन नहीं है।
मैं उनकी तरफ
से तुमसे कहता
हूं: बराबर
भोजन कर सकते
हो। और कभी
मेरा उनसे मिलना
होगा मोक्ष
में तो निपट
लूंगा, तुम
फिक्र न करो!
बिजली घर में
हो तो रात्रि
भोजन करने में
कोई भूल नहीं
हुई जा रही
है।
लेकिन सोहनलाल दूगड़।
आदतें बड़ी
मुश्किल से
छूटती हैं।
मुझे भोजन कराने
बैठते तो पंखा
झलते। मैंने
उनसे कहा, एअर कंडीशंड
मकान है, यहां
न मक्खी, न
मच्छर, यह
पंखा किसलिए
झल रहे हो? उन्होंने
कहा, आपने
भी खूब याद
दिलाई! जैन—मुनि
आते हैं तो उनको
पंखा मैं झलता
हूं, किसी
ने मुझसे यह
कहा ही नहीं! न
मैंने कभी सोचा
कि यह मैं
क्या कर रहा
हूं? पुरानी
राजस्थानी
आदत!
उसी
वक्त पंखा
फेंक दिया।
कहा कि यह बात
ठीक है। अब आए
जैन—मुनि! अब
मैं पंखा झलनेवाला
नहीं! हद हो
गयी! मगर किसी
ने मुझे याद
क्यों नहीं
दिलाया? यह
तो इतनी सीधी—साफ
बात है कि न
मच्छर, न
मक्खी, कुछ
भी नहीं है इस
घर में, पंखा
किसलिए
झल रहे हो? पुरानी
आदतें हमें पकड़े रखती
हैं। हमारा
पीछा करती
हैं।
खयाल
रखना, सदियों
ने भी जिस बात
को भी कहा हो
कि गलत है, उस
पर भी
पुनर्विचार
करना। कहीं वह
आदत ही न हो गयी
हो!
विद्वान
न्यायाधीश ने
टेबल पर जोर
से हाथ पटककर
घोषणा की—मुजरिम
पर छह शादियों
का आरोप लगाया
गया था, लेकिन
प्रर्याप्त
सबूत न मिलने
के कारण अदालत
मुजरिम को बाइज्जत
बरी करती है।
पक्ष के वकील
ने प्रसन्न
होकर कहा, जाओ
नसरुद्दीन,
अब तुम खुशी—खुशी
घर जा सकते हो,
तुम्हारी
बीबी बेताबी
से तुम्हारा
इंतजार कर रही
होगी। मुल्ला
बोला, सत्य
की सदा विजय
होती है। और
मैं जानकर
आनंदित हुआ कि
हमारे कानून,
संविधान, पुलिस और
अदालत सभी
सत्य की सेवा
में समर्पित हैं।
आप लोगों ने
सिद्ध कर दिया
सत्यमेव जयते। अब कृपाकर एक
बात और बता
दीजिए कि मैं
कौन—सी बीबी
के घर जाऊं? ताकि बाद
में कोई
कानूनी झंझट न
हो।
हैं तो
उनकी छह ही
बीबी!
उसको
कैसे भुलाओगे? वह आदत, वह
पुरानी आदत।
जितनी
तुम भूलें कर
रहे हो, उतनी
भूलें तुम
नहीं कर रहे
हो। उनमें से
कई तो सिर्फ
मान्यताएं
हैं। उन
मान्यताओं को
तो काट दो
एकबारगी। तब
बहुत थोड़ी—सी
भूलें बचेंगी
और आसान हो
जाएगा काम।
नब्बे
प्रतिशत
भूलें कह
जाएंगी। दस
प्रतिशत
भूलें बचेंगी
और उनको
सुलझाया जा
सकता है।
नब्बे
प्रतिशत की
भीड़ में उनको
सुलझाना
मुश्किल, उनको
पता ही लगाना
मुश्किल होता
है कि कौन—सी
असली भूल है? ऐसी क्षुद्र
बातें
तुम्हें पकड़ायी
हुई हैं कि
जिनका हिसाब
लगाना
मुश्किल है!
उन क्षुद्र
बातों को भूल
समझकर तुम
कितने प्रताड़ित
होते हो, कितने
परेशान होते
हो! कोई चाय
पीता तो सोचता
है भूल कर रहा
हूं। अब चाय
जैसी निर्दोष
चीज। माना कि
उसमें निकोटिन
है, मगर
इतना कम है कि
अगर तुम बारह
कप चाय रोज पिओ,
बीस साल तक ......अब
बीस साल तक
बारह कप चाय, इन सबका निकोटिन
अगर इकट्ठा कर
लिया जाए और
उसको इकट्ठा
पी जाओ, तो
मौत हो सकती
है। यह भी कोई
बात हुई! और
शरीर कोई बीस
साल तक चीजें
इकट्ठी थोड़े
ही करता है! इधर
पिआ, उधर
गया। तुमने चाय
पी, थोड़ी
देर में "जीवनजल"
हुआ!
इतने
परेशान लोग
हैं, छोटी—छोटी
बातों के लिए!
मेरे
पास आ जाते
हैं कि क्या
करें, चाय
नहीं छूटती! छोड़नी ही
क्यों? कुछ
पाप नहीं कर
रहे हो, किसी
की हत्या नहीं
कर रहे हो, किसी
का खून नहीं
पी रहे हो......खून
पीते वक्त फिकिर
नहीं करते।
अगर फंस जाए
कोई तुम्हारे
पंजे में, तो
जैसे मकड़ी
चूस ले मक्खी
को, जाल
में उसके आ
जाए, ऐसे
तुम चूस लो।
उसमें
पि१३२क्र
नहीं करते छान
के भी नहीं
पीते। बिना ही
छाने पी
जाते हो खून
तो ढंग हैं
खून पीने के।
ब्याज; चक्रवृद्धि
ब्याज। एक दफा
फंस जाए कोई
चक्कर में!
लेकिन चाय
पीने में
विचार करते हो
कि कहीं भूल
तो नहीं हो
रही है। कहीं
कुछ पाप तो
नहीं हो रहा
है। लेकिन
बौद्ध भिक्षु
सारी दुनिया में
चाय पीते हैं
और कोई चिंता
नहीं है उनको।
महात्मा
गांधी के
आश्रम में चाय
पीना वर्जित था।
जैसे और कोई
बड़े काम करने
को नहीं बचे
दुनिया में
अब! बस, चाय
नहीं पिओ
तो काम हो
जाएगा! और
जिसने चाय
नहीं पी, वे
समझते थे, अकड़कर
चलते थे कि
कुछ गजब कर
लिया!
फिर
चोरी भी होती
थी। लोग चोरी
से भी चाय
पीते थे। जहां
इस तरह के
क्षुद्र नियम
बनाओगे, वहां
क्षुद्र
चीजों की
संभावना बढ़
जाएगी। अब लोग
चाय तो पिएंगे,
छिपकर पिएंगे;
कमरा बंद
करके, दरवाजा
बंद करके चाय
तैयार
करेंगे। और
महात्मा
गांधी को जब
पता चल जाता
है कि किसी ने
चाय पी, तो
वे तीन दिन का
उपवास
करेंगे।
आत्मशुद्धि के
लिए! चाय उसने
पी, आत्मशुद्धि
वे अपनी
करेंगे! अगर
किसी और के चाय
पीने से तुम्हारी
आत्मा अशुद्ध
हो रही है, तब
तो आत्मा के
शुद्ध होने का
फिर समझो खयाल
ही छोड़ दो! इस
दुनिया में
क्या—क्या
नहीं हो रहा
है! लेकिन
ठेका ले लिया
जैसे। और फिर
तब ऐसी बातें
होंगी तो
तुम्हारा जो गुरु
है—जैसे
महात्मा
गांधी गुरु थे
आश्रम के, तो
उनकी नजर
महात्मा की कम
और जासूस की
ज्यादा हो
जाएगी।
स्वभावतः। हर
चीज में
दखलंदाजी।
विनोबा
भावे रोज उठकर
हर एक कमरे
में जाते हैं।
ऐसे कोई जरूरत
है जाने की हर
कमरे में रोज
देखने कि सफाई
हुई कि नहीं? ऐसा नहीं, हर संडास
में भी झांक
कर देखते हैं
कि सफाई की कि
नहीं लोगों ने?
तुम्हें
अगर अपने
आश्रमवासियों
का इतना भी
भरोसा नहीं है,
अगर
तुम्हारे
आश्रमवासियों
को इतनी भी
तमीज नहीं है......नाम
हैः
"ब्रह्मज्ञान
विद्या
मंदिर" और संडास
साफ करने की
तमीज नहीं है!
और विनोबा रोज
चक्कर लगाते
हैं और रोज
देखते हैं जा—जाकर!
स्वभावतः इस
तरह के लोग अगर
यहां आ जाएंगे
तो उनको बहुत
हैरानी होगी;
क्योंकि
मैं इस आश्रम
को देखा ही
नहीं! बस, सुबह
यहां उठकर आ
जाता हूं, सांझ
फिर यहां उठकर
आ जाता हूं।
कौन किस कमरे में
रहता है, इसका
भी मुझे पता
नहीं। अगर
मुझे ढूंढ़ने
निकलना पड़े, किसी को तो
मैं ढूंढ़ नहीं
पाऊंगा। असंभव।
इस आश्रम के
मकानों में भी
एक बार नहीं
गया हूं।
आश्रम के आफिस
में एक बार
नहीं गया हूं।
प्रयोजन क्या?
इतना भरोसा
लोगों पर नहीं
है। और लोग जो
आए हैं, उनका
कुछ
उत्तरदायित्व
है। वे अपने
जीवन को रूपांतरण
करने आए हैं, स्वतंत्रता
की तलाश में
आए हैं। यह
विनोबा का
आश्रम न हुआ
जेलखाना हुआ।
जिसमें चौबीस
घंटे नजर रखी
जाए। ये
विनोबा न हुए,
कोई। हेड
कांस्टेबल
हुए।
लेकिन
इसकी प्रशंसा
की जाती है!
विनोबा
के एक भक्त
मुझसे आकर कह
रहे थे कि विनोबाजी
पूरा आश्रम
रोज देखते हैं
जाकर, आप
देखते हैं कि
नहीं? मैंने
कहा कि कोई
जरूरत नहीं
है। प्रत्येक
व्यक्ति को
अपनी तरफ देखना
है, अपना
हिसाब रखना
है। जिसको जो
ठीक लग रहा है,
वह उसे करना
है। मैं बोध
देता हूं।
लेकिन मैं तुम्हारे
पीछे कोई लकड़ी
लेकर घूमूंगा!
और ऐसे कहीं
बोध आया है!
तो
विनोबा जब आते
होंगे तब कमरे
की सफाई हो जाएगी
और चाय वगैरह
का सामान होगा
तो बिस्तर के
नीचे छिपाकर
रख दिया जाएगा; फिल्मी पत्रिकाएं
होंगी तो गीता
में दबा दी
जाएंगी; और
विनोबा जी गए
कि असली चीजें
बाहर आ
जाएंगी। नहीं,
उन्होंने
कहा कि वे कभी—कभी
आकस्मिक रूप
से भी आ जाते
हैं। तो मैंने
कहा, यह भी
ठीक है। पुलिस
के ही ढंग हैं
ये! कभी—कभी
"रेड" करती है
न पुलिस!
आकस्मिक। मगर
यह दृष्टि कोई
सद्गुरु की
दृष्टि नहीं
है। इसमें दूसरे
पर भरोसा नहीं
है, पहली
तो बात। इसमें
दूसरे पर शक
है, संदेह
है। और जिन पर
तुम्हें शक है,
उनसे तुम
सोचते हो कि
वे तुम पर
श्रद्धा
करेंगे!
असंभव। संदेह संदेह
पैदा करता है,
श्रद्धा श्रद्धा
पैदा करती है।
भूलें, ज्योति, जो
भी तुझसे होती
हों, पहले
तो उन भूलों
को काट डालना
जो मूढ़ों
ने तुम्हें
समझायी हैं कि
भूलें हैं।
फिर जो थोड़ी—सी
भूलें बचें, उनमें से
प्रत्येक भूल
के लिए पछतावा
मत करना। कल
नहीं करेंगे,
ऐसा निर्णय
मत लेना। जब
भूल हो रही हो,
तभी
ध्यानपूर्वक
उस भूल को
करो। मैं यह
भी नहीं कहता
कि मत करो।
क्योंकि मत
करने में दमन
हो जाएगा। और
दमन हुआ तो
फिर कभी
निकलेगी।
होशपूर्वक
करो। जैसे
क्रोध आ गया; तो क्रोध
करो, लेकिन
भीतर पूरे जागकर,
सजग होकर कि
मैं क्रोध कर
रहा हूं, यह
रहा क्रोध, यह क्रोध का
धुआं उठ रहा
है, यह मैं
क्रोध में इस—इस
तरह की बातें
कह रहा हूं, ये क्रोध
में मैंने
चीजें तोड़ डालीं,
पूरे
होशपूर्वक
करो और तुम
चकित हो जाओगी—होशपूर्वक
क्रोध कर लिया
एक बार, फिर
दोबारा क्रोध
नहीं होगा।
क्योंकि होश
इतनी बड़ी बात
है, इतनी
अद्भुत कला है,
ऐसी कीमिया
है कि क्रोध, लोभ, सब
धीरे—धीरे
बिदा हो जाते
हैं।
कुछ
भूलें लोग
अपने हाथ से
पैदा करते
हैं। जैसे कि
उपवास कर
लिया। अब एक
भूल तो उपवास
करना है......हां, कभी—कभी
चिकित्सक कहे
कि एक दिन
भोजन मत करो, तो ठीक है।
चिकित्सक की सलाह
पर अगर भोजन
एक दिन छोड़ दो,
दो दिन छोड़
दो, समझ
में आता है।
मगर चिकित्सक
की सलाह पर।
वह स्वास्थ्य
के लिए। इसका
कोई
आध्यात्मिक
मूल्य नहीं
है। लेकिन
पहले तो उपवास
कर लिया इस आशा
में कि इससे
बड़ी आत्मा की
प्राप्ति
होगी! आत्मा
वगैरह की कोई
प्राप्ति
नहीं होगी, उपवास किया
तो दिन—भर
भोजन की याद
आएगी। फिर
चित्त में
ग्लानि होगी
कि मैं भी
कैसा क्षुद्र
कि भोजन ही
भोजन की सोच
रहा हूं! मैं
कैसा भोजन—भट्ट!
तुम भोजन—भट्ट
नहीं हो, उपवास
के कारण यह
भोजन की याद आ
रही है। कामवासना
को दबा लोगे, तो दिन—रात
कामवासना
सताएगी। जो भी
दबाओगे, वह तुम्हारी
रग—रग में समा
जाएगा।
दमन की
भूल मत करना।
मैं
तुमसे कहता
हूं: सम्यक्
आहार। न तो
ज्यादा भोजन
करना। न कम भोजन
करना। जितना
जरूरी है शरीर
के लिए उतना
भोजन देना।
तुमसे कहता
हूं कि जीवन
में सब जगह संतुलन
रखना। संयम का
मेरा अर्थ हैः
संतुलन। संयम
का अर्थ त्याग
नहीं। संयम का
अर्थ हैः न भोगी, न त्यागी।
दोनों के ठीक
मध्य में। न
अति आहार, न
उपवास। जितना
आवश्यक है। और
तुम्हारी
आवश्यकता
तुम्हीं तय कर
सकते हो।
तुम्हारी
आवश्यकता कोई
दूसरा तय नहीं
कर सकता।
प्रत्येक व्यक्ति
की
आवश्यकताएं
भिन्न हैं। अब
जो आदमी आठ
घंटे खेत में
मेहनत कर रहा
है, वह
ज्यादा भोजन
करेगा। वह
भोजन भट्ट
नहीं। और जो
आदमी
युनिवर्सिटी
में अध्यापन
करता है, वह
भी अगर उतना
भोजन करे तो
भोजन—भट्ट है।
अध्यापन करने
वाले का भोजन
कम होगा, मजदूर
का भोजन
ज्यादा होगा।
यह बिल्कुल
स्वाभाविक
है। इसलिए
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपने निर्णय
लेने की क्षमता
जुटानी
चाहिए। अपने
मालिक बनो।
संन्यास का
यही अर्थ है।
अपनी मालकियत
अपने हाथ में
लो। बहुत दिन
रह चुके गुलाम
औरों के, शास्त्रों
के, अब
अपने मालिक
खुद बनो। भूल
भी करनी है तो
अपनी मालकियत
से करो। और
निंदा न करना।
क्योंकि जब
तुम निंदा
करोगे तो जाग
न सकोगे।
जल्दी से
निर्णय मत
लेना कि यह
भूल है, यह
पाप है। पहले
ठीक से
निरीक्षण
करो।
एक
सूत्र स्मरण
में रहे, अगर
तुम
होशपूर्वक
किसी काम को
करो और वह काम होश
के कारण बंद
हो जाए, तो
समझना कि भूल
थी। और अगर
होश के बाद भी
जारी रहे, तो
समझना कि भूल
नहीं थी।
होश ही
निर्णायक है।
आखिरी
प्रश्नः
भगवान, मैं मोहित
हूं आपके गीत
से। यह गीत
क्या है जो मुझे
बार—बार आपके
पास खींच लाता
है?
सत्यानंद, यह गीत मेरा
नहीं है। यह
गीत परमात्मा
का है। उतना
ही मेरा है
जितना
तुम्हारा है।
उतना ही मेरा
है जितना
पक्षियों का
है, वृक्षों
का है, पहाड़ों
का है। इस गीत
पर मेरा कोई
दावा नहीं है।
निश्चित ही यह
मेरा नहीं है।
मैं तो गया मिट,
तब यह गीत
पैदा हुआ है।
मैं तो रहा
नहीं, तब
यह गीत जन्मा
है। यह मेरी
मौत से उभरा
है। यह मेरे
शून्य से जागा
है। यह शून्य
की वीणा पर बज
रहा है। इसे
दूसरे शब्दों
में कहो तो
यही
भगवद्गीता
है। यह
परमात्मा का
गीत है। मेरा
कंठ उसके काम
आ रहा है, मैं
बांसुरी हूं,
पोली बांस
की पोंगरी, कोई ओंठ पर
रख ले तो
बांसुरी हो
जाए, और
कोई ओंठ पर न
रखे तो बस
बांस की
पोंगरी। गीत बांसुरी
के नहीं होते,
गीत तो
बांसुरी—वादक
के होते हैं।
वह वादक
अदृश्य है।
बांसुरी
तुम्हें
दिखायी पड़ रही
है। इसलिए खिंचे
आते हो।
खिंचे
आते रहे तो
धीरे—धीरे यह
गीत तुमसे भी
प्रकट होगा।
मेरा
प्रत्येक
संन्यासी इस
गीत को आज
नहीं कल गाएगा।
इस नृत्य को
नाचेगा। यह
उत्सव मेरे
प्रत्येक संन्यासी
के जीवन में
समाविष्ट
होने को है। यह
सुनिश्चित
है। इसकी
भविष्यवाणी
की जा सकती है।
यह गीत सारी
पृथ्वी पर गूंजेगा।
इसे कोई अवरोध
रोक नहीं
सकेगा। सब
अवरोध चुनौतियां
बन जाएंगी। और
तुम
सौभाग्यशाली
हो कि तुम्हें
सुनायी पड़ गया
है। क्योंकि
बहुत हैं
अभागे जो बहरे
हैं। और बहुत
हैं अभागे जो
अंधे हैं।
यह
गीत वो दिलकश
सावन है
हो
जिससे इबारत
दिल की बहार
तख़ईल
के तायर
की चहकार
नाजुक
से हसीं
बोलों की
फुहार
यह
गीत वो दिलकश
सावन है
यह
गीत वो रंगीं
दामन है
जिसमें
हों भरे रूमान
के फूल
अश्कों
के गुहर
अरमान के फूल
इदराक
के गुल इरफ़ान
के फूल
यह
गीत वो रंगीं
दामन है
यह
गीत वो बजता
झांझन है
हो
जिसमें निहां
इक ज़मज़माज़ार
इठलाती
जवानी की रफ्तार
बदमस्त
अदाओं की
झंकार
यह
गीत वो बजता
झांझन है
कोई गा
रहा है। मेरे
पास आते रहे, आते रहे, आते
रहे, तो
धीरे—धीरे मैं
दिखायी नहीं
पडूंगा, वही
दिखायी पड़ने
लगेगा जो गा
रहा है। वही
दिखायी पड़ने
लगेगा, जो
तुम्हें बुला
रहा है। जिससे
तुम खिंचे
चले आते हो।
मेरे कारण
नहीं, चुंबक
उसका है। मैं
तो सिर्फ
निमित्त हूं,
बहाना हूं।
सब उसका है।
"मेरा मुझमें
कुछ नहीं"।
आज
इतना ही।
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