पत्र पाथय—11
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
पद—स्पर्श!
आपका आशीष—पत्र!
वह भी मिला जो
लिखा है और वह
भी जो अनलिखा छूट
जाता है।
अनलिखा तो
प्राण है।
दीखता शरीर ही
है पर अपने मे
इसका कोई
मूल्य नहीं है।
वह है
मूल्यवान
उसके कारण जो
पीछे है पर
दीखने में
नहीं आता है।
जीवन के इस महाकाव्य
में
प्रगटीकरण
केवल क्षुद्र
का है : विराट
अप्रगट है।
मैं
तो इस अक्षरों
को पढ़ना सीख
गया हूं जो
दीखते नहीं है? और वे
संदेश मुझे हर
क्षण घेरे
रहते हैं, प्रगटत:
जो कहीं से भी
दिये नहीं गये
हैं। इस तरह
अदृश्य से
मैत्री बन रही
है और प्रभु
का सानिध्य
अनुभव हो रहा
है।
यह
रहस्यानुभव
उठते—बैठते, सोते—जागते
चित्त—द्वार
पर बना रहता
है। आंखें बंद
न हों तो यह
अनुभूति
प्रत्येक को
होगी। आंखें
खोलने की ही
बात है। यही
है 'दर्शन'। दर्शन चिंता
से द्वार खुल
जाते हैं।
ताले टूट जाते
हैं। जगत की
बंद किताब
अपना अर्थ खोल
देती है। राह
के किनारे पड़े
सारे कंकड़—पत्थर
'इसकी' ही
प्रतिमा बन
जाते हैं।
मैं
इसी आनंद में
हूं। आप कहती
हैं, इसे
बांटू। मेरे
रोके क्या यह
रूकेगा? यह
तो बहेगा ही।
यह तो सब तक
पहुंचेगा ही।
यह 'मेरा' कहां है जो
इसे बंद कर
लूंगा? मैं
तो बांस की
बांसुरी बनना
चाहता हूं।
स्वर तो उसी
के हैं। वह
मुझसे पाना
चाहता है तो
क्या मैं रोक
सकता हूं?
सबको
मेरे प्रणाम।
शारदा, शांता, प्रदीप और
परम—शांतिलाल
एंड कं. को
मेरा स्नेह
आपका
अपना
रजनीश
27
दिसम्बर 1960
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