पत्र पाथय—19
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
30 जनवरी 1961
प्रभात।
प्रिय मां,
बसंत—गीत
फैला है। सब
सुन्दर हो उठा
है। बूढ़े दरखत
हरे हो गये
हैं और सूखी
टहनियों पर जादू
की तरह नई
कोपलें निकल
आई हैं। फूल
ही फूल—प्रभु
की पूरी महिमा
के साथ पौधे
दुल्हिनें
बने खड़े हैं।
इस
सुंदर
अभिव्यक्ति
में भी जो 'उसे' नहीं
देख पाता है
वह उसे और कभी
नहीं देख सकता
है।
इस
सबके पीछे
उसके खेल को
मेरी आंखें
पकड़ लेती है
और तब एक
अद्भुत आनंद
प्राणों पर छा
जाता है।
वह है
एकदम निकट—उत्सुक, मिलने को
बहुत—बहुत
आतुर हम ही
दूर खड़े हैं।
वह आमंत्रण
देता है और हम
बहरे हैं। वह
रुप—रंग में
खिलता है और
बुलाता है पर
हम है अंधे कि
देख नहीं पाते
हैं।
आंख
खोलते ही वह द्वार
पर मिल जाता
है, दूर
नहीं जाना
होता। यह
सामने जो कली
फूल बन रही है—इसे
देखती हैं; दो पुखरियां
खुल गई हैं; तीसरी बस
खिलने को है—और
पास ही उसकी
अंगुलियां भी
हैं! कितना
आहिस्ता—आहिस्ता
वह कली को फूल
बना देता है!
मैं
उससे रोज कहता
हूं! ओ
अपरिचित तू
कितना परिचित
है!
सबमें
बैठे उस प्रभु
को मेरे
प्रणाम कहें।
प्रभु
में आपका
रजनीश
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