पत्र पाथय—24
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
प्रभात! रात
स्वप्न में
दिखी हो—बहुत—बहुत
निकट कि मैं
भूल ही गया कि जो
है वह स्वप्न
है और दैर तक
उसे सच मानकर
ही खोया रहा हूं।
पांच ही बजने
को थे और
तुमने मेरे माथे
पर अपना हाथ
रख लिया है—
आशीष भरा
स्पर्श और मैं
पलकों को बंद
किये पड़ा हूं और
तुम्हारी
सांसों की
मद्धिम आवाज
निकट ही सुनाई
पड़ रही है! .......
फिर जागा
हूं और कैसे
कहूं कि जागना
कितना दुखद
था! काश 'स्वप्न
शाश्वत्।
होते और कभी न
टूटते —पर
स्वप्न तो टूट
ही जाते हैं
और कोन जाने
शायद इससे ही
इतने मीठे
लगते हैं।
कार्ड
अभी—अभी मिला
है। क्रांति
का मन स्वस्थ
हो रहा है।
ईश्वर ने साथ
दिया तो
निर्दय होने
से बच जाऊंगा।
और सच कहूं मा, तो
निर्दय हो भी
नहीं सकता हूं।
वह तत्व ही
मुझमें नहीं
है। विचारता हूं
कभी तो महावीर
और बुद्ध बड़े
कठोर, हिंसक
और पाषाण हृदय
दिखते हैं।
उतना पत्थर
होकर मोक्ष
मैं नहीं
चाहता हूं।
प्रेम के साथ
हो मोक्ष सधे
तो ठीक; अन्यथा
प्रेम ही साध
लूंगा और
मोक्ष छोड़ दे
सकता हूं।............इतनी
सरलता से
मोक्ष छोड़ता
देख शायद आश्चर्य
हो? पर मां,
मैं
असंदिग्ध मन
जानता हूं कि
प्रेम और
मोक्ष एक ही
मनस्थिति के
दो नाम मात्र
हैं। प्रेम ही
मोक्ष है। यह
प्रेम वासना
और मोह में
दबा होता है।
इसे इनके बौध
को निकाल लें
तो असीम आनंद,
अनंत
सौंदर्य और
शाश्वत प्रिय—
सब एक साथ……..........।
रजनीश
के प्रणाम
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