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मंगलवार, 1 मार्च 2016

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--66)

अध्‍याय—(छियाष्‍ठवां)

धीरे—धीरे लोग हमें समझने लगे हैं। मेरे ऑफिस के लोग मुझे अजीब निगाहों से नहीं देखते। कुछ लोग ओशो की पुस्तकें पढ़ने लगे हैं और कछ उनके प्रवचन सुनने के लिए भी आने लगे हैं। सारा वातावरण परिवर्तित हो गया है। मेरे बॉस भी अब मुझसे नाराज नहीं हैं। इसके विपरीत, जितना हो सकता है उतनी वह मेरी मदद ही करते हैं।

अट्ठारह दिन के लिए सुबह. 8—30 से 10—00 बजे तक पाटकर हॉल में ओशो के प्रवचन आयोजित किए गए हैं। ओशो महावीर पर बोलने वाले हैं। मेरा ऑफिस सुबह 9—00 बजे शुरू होता है और मेरी कोई छुट्टियां भी बाकी नहीं बची हैं। मैं बड़ी असहाय महसूस करती हूं और ओशो से मिलने जाती हूं। मैं उन्हें अपने ऑफिस के टाइमिंग के बारे में बताती हूं और उनसे पूछती हूं कि मुझे क्या करना चाहिए। वे कभी भी मेरे ऑफिस से त्यागपत्र देने के पक्ष में नहीं हैं।
वे मुझसे पूछते हैं, तेरे बोस का नाम क्या है और वह कैसा दिखता है?'
मैं उन्हें अपने बॉस का नाम और व्यक्तित्व के बारे में थोड़ा सा बताती हूं। वे मिनटों के लिए अपनी आंखें बंद कर लेते हैं और मुझे अपने हूं। कुछ
बॉस से यह कहने के लिए कहते हैं कि अट्ठारह दिन के लिए मैं रोज 10—30 बजे आया करूंगी। मैं आश्चर्य चकित हूं। यह बिलकुल असंभव ही लगता है। मैं ओशो से कहती हूं यह तो नहीं चलेगा। हमारे ऑफिस में टाइम कार्ड पंच करने की व्यवस्था है। केवल एक मिनट की देरी वहां चल सकती है।यह सुनने के बाद ओशो फिर से वही बात दोहराते हैं
और मुझे वैसा ही करने को कहते हैं, जैसा उन्होंने कहा है।
मैं इसी उधेड़—बुन में ऑफिस पहुंचती हूं कि अपने बोस को यह बात कैसे कहूंगी। मैं जानती हूं कि ऑफिस में वह कठोर अनुशासनप्रिय माने जाते हैं। मेरा मन कहता है, वह समझेंगे कि मैं इतनी छूट मांग रही हूं शायद मेरा दिमाग खराब हो गया है।
किसी तरह मैं उनके पास जाने का साहस जुटाती हूं। वह मुस्कुराकर मेरा स्वागत करते हैं, जैसा कि वह सामान्यत: नहीं करते, और मुझसे पूछते हैं कि वह मेरे लिए क्या कर सकते हैं?' हिचकिचाते हुए, मैं उनसे पूछती हूं कि क्या कुछ दिन के लिए मैं सुबह एक घंटा देर से आकर शाम को एक घंटा देर तक काम कर सकती हूं?' मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता, जब वह यह कहते हैं कि उन्होंने अखबार में विज्ञापन देखा है और उन्हें पता है कि अट्ठारह दिन के लिए ओशो रोज सुबह 8—30 से 10—00 बजे तक बोलने वाले हैं। फिर वह मुझसे पूछते हैं, तुम 10—00 बजे तक ऑफिस में कैसे पहुंच पाओगी?' मैं कहती हूं मैं प्रवचन के कछ पहले ही निकल आया करूंगी और फिर टैक्सी पकड़कर ऑफिस पहुंच जाया करूंगी।वह कहते हैं, प्रवचन से जल्दी निकलने की कोई जरूरत नहीं है। तुम 10—30 बजे तक आ सकती हो, और टाइम कार्ड भी पंच मत करो, उसकी फिकर मैं कर लूंगा। और तुम्हें देर तक बैठने की जरूरत भी नहीं है।
मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पाती। कैसा चमत्कार है। मुझे पूरा विश्वास है कि ओशो ने इस व्यक्ति के साथ कोई टेलीपेथी की है, जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती।
जब मैं ओशो से इस बारे में बताती हूं तो वे हंस पड़ते हैं और कुछ भी नहीं कहते। मैं सोचती हूं कि अपनी चमत्कारिक शक्तियों के बारे में वे कोई ज्यादा बातें करने के पक्ष में नहीं हैं।



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