पत्र पाथय—14
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
प्रभात! वृक्षों
के रन्ध्रों
से सूरज की
किरणें मुझ तक
आ पहुंची है।
बौरे आम सिर
उठाए खड़े हैं।
मंदिर की
घंटियों का
निनाद गूंजता
जाता है।
मैं
घूमकर लौट पड़ा
हूं।
रात भर
की सोयी राह
जाग रही है।
बहुत—बहुत
आनंद है।
राह
चलते राहियों
के चेहरे उदास
हैं। थके और
प्रसन्नता
शून्य —
उसकी आंखें
कहीं और खोई
हैं। वे जैसे
अपने में नहीं
है। यह बीमारी
सारी दुनियां
में फैल गई है।
कोई अपने में
नहीं है।
की—की—टुट—टुट।
बांसों के कुज
से चिड़ियों का
झुंड उड़ जाता
है। मनुष्य को
छोड़ सारे पशु
जानते हैं कि
जीवन आनंद के
लिए है। कोई
चिड़िया उदास
नहीं दीखती।
घास का तिनका
भी रोता हुआ
नहीं। मनुष्य
एकदम रोऊ हो
गया है।
कारण
क्या है? कारण है कि
मनुष्य वर्तमान
में नहीं है।
अतीत भूत है।
भविष्य अनजान
है। वर्तमान
ही एकमात्र
जीवन है। सजा
बस वर्तमान की
है। जो वर्तमान
में नहीं है, वह जीवित भी
नहीं है।
मनुष्य वर्तमान
को भूल गया है।
एक क्षण भी वह
वहां नहीं है
जहां है।
इससे
दुःख है। यह
मूल में मानसिक
है। कोई
राजनैतिक या
आर्थिक हल मात्र
इसे हल नहीं
कर पायेगा। मन
की क्रांति ही
मार्ग है।
उससे ही समाधान
आ सकता है। कल
बोला हूं तो
यही कहा है।
पत्र
आपका कल
संध्या। खूब
मीठा। खादी
अभी रखी है।
पहनूं? वैसे खराब
हो जाने का डर
जो है।
शांता
को पुत्र की
उपलब्धि हुई
है यह तार
मिला।
मेरा
आशीष तो उसके
कानों में डाल
ही देना।
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