पत्र पाथय—16
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
अर्धरात्रि
14 जन. 1961
प्रिय मां,
सोम......मंगल.....
बुध...... और अब तो
बुध भी जा
चुका। बाट है
और पत्र का
पता नहीं है।
किस काम में
लगी हैं? क्या पत्र
की प्रतीक्षा
का आनंद देने
का आपका भी मन
हुआ है, पर
नहीं। जानता
हूं यह आप न कर
सकेंगी। जरुर
कोई उलझन है
इससे चिंतित
हूं।
एकांत
रात्रि! बहुत
से चित्र
उभरते हैं।'
...........................................
वर्धा
में
सद्य:स्नाता
आप द्वार पर आ
खड़ी हुई हैं।
वह चित्र भूल
ता ही नहीं।
बहुत सजीव
होकर मन में
बैठ गया है।
बार—बार लौट
आता है। तीन
दिन साथ था।
पर इस चित्र
का जोड़ नहीं
है। बहुत सरल——बहुत
पवित्र——बहुत
पारदर्शी।
उसमें आप मुझे
पूरी—पूरी दिख
आई थीं।
आज फिर
वैसे ही द्वार
पर खड़ी हुई
हैं।
मधुर
मुस्कुराहट
फैलती जाती है
और मुझे घेर लेती
है।
.................................................
फिर
सोचता हूं—पत्र
न सही, आप
तो हैं।
मैं
प्रसन्न हूं
शांत और
स्वस्थ।
प्रभु की अनंत
अनुकम्पा है
और मेरी
कृतज्ञता का
भी पार नहीं
है। कृतजता का
यह बोध ही
जीवन के
कांटों भरे
रास्तों को
फूलों से भर
देता है। मेरा
रास्ता फूलों
और गीतों से
भर गया है।
आशीर्वाद
की प्रतीक्षा
में
आपका
ही रजनीश
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