अध्याय—(इकहतरवां)
मेरे
एक मित्र के
पास काले जादू
की एक किताब
है जो
उत्सुकतावश
मैंने पढ़ने के
लिए उससे मांग
ली है। यह
मेरे लिए नया
विषय है और
मैं इसे रोचक
पाती हूं। आधी
रात गए तक मैं
यह किताब पड़ती
रहती हूं और जब
आंखें नींद से
भरने लगती है
तो लाइट
बुझाकर मैं
किताब को अपने
बिस्तर के पास
पड़ी मेज पर
ओशो की उस
तस्वीर के आगे
रख देती हूं
जो उन्होंने
हस्ताक्षर
करके मूझे दी
है। कुछ ही
मिनटों में
किताब जमीन पर
गिर जाती है।
किताब के
गिरने की आवाज
सुनकर मैं
सोचती हूं कि
मैंने किताब
ठीक से नहीं
रखी शायद इसीलिए
वह नीचे गिर
गई है।
अगली
रात भी मैं यह
किताब पढ़ती
रहती हूं और
जब नींद आने लगती
है तो पिछली
रात की बात
याद करके पहले
मैं किताब को
ठीक से
संभालकर ओशो
की तस्वीर के
आगे रखती हूं
और फिर लाइट
बुझाती हूं।
थोड़ी ही देर
में फिर से
किताब के
गिरने की आवाज
मुझे चौंकाकर
जगा देती है।
मैं डर जाती
हूं। लाइट जला
कर देखती हूं
क्योंकि मुझे
समझ नहीं आता
कि आखिर हुआ
क्या है।
किताब जमीन पर
पड़ी हुई है।
मैं ओशो की
तस्वीर की ओर
देखती हूं तो
उसे बहुत
जीवंत महसूस
करती हूं। वे
मेरी ओर देखकर
मुस्कुरा रहे
हैं। मुझे बात
समझ में आ जाती
है और किताब
को जमीन से
उठाकर मैं
कमरे के दूसरे
कोने में रख
देती हूं।
अगले दिन जब
मैं अपने
मित्र को वह
किताब लौटाती
हूं और रात
वाली घटना
बताती हूं तो
वह कहता है, तुम
भाग्यशाली हो।
तुम्हारे
गुरु ने
तुम्हें बचा
लिया।’ मैं
उससे पूछती
हूं 'और
तुम?' वह
कहता है, मैं
तो पूरी तरह
इसमें डूबा
हुआ हूं और
इसे बीच में
छोड़ना नहीं
चाहता।’
मुझे
अपने मित्र के
लिए दुख होता
है,
जब कुछ
महीनों के बाद
मैं यह सुनती
हूं कि वह पागल
हो गया।
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