अध्याय—अट्ठहत्ररवां
आज सुबह 8—3०
बजे ओशो पाटकर
हॉल में
महावीर पर बोल
रहे हैं। प्रवचन
के बाद करीब 10—00 बजे, कबीर
और करुणा
हॉस्पिटल चले
जाते हैं और
मैं भगवती के
पास शाम को
जाने का सोच
अपने ऑफिस चली
जाती हूं।
करीब 12—00 बजे
मुझे लक्ष्मी
का फोन आता है
कि 'भगवती
की हालत गंभीर
है और मैं
उसके माता—पिता
को यह संदेश
भिजवा दूं।’ भगवती के घर
कोई फोन नहीं
है। मुझे कुछ
समझ नहीं आता,
सो मैं
भगवती को देखने
निकल पड़ती हूं।
टैक्सी
पकड़ कर पंद्रह
मिनट में मैं
हॉस्पिटल पहुंच
जाती हूं।
वहां
हॉस्पिटल के
बरामदे में
भगवती की चाची
को रोता देख
मैं हक्की—बक्की
रह जाती हूं।
मैं दौड़ी—दौड़ी
भगवती के कमरे
में पहुंचती
हूं,
जहां से एक
नर्स मुझे ऑप्रेशन
थियेटर में ले
जाती है। मुझे
अपनी आंखों पर
भरोसा नहीं आता
जब: मैं भगवती
को चादर से
ढकी मृतकाय
देखती हूं।
उसका चेहरा
एकदम शांत है
जैसे कि वह
गहरे ध्यान
में हो। उसे देख
मेरा मन एकदम
शून्य हो जाता
है। मैं उसके
सिर को छूती
हूं जो एकदम
ठंडा है, और
रो पड़ती हूं।
भगवती के
मित्र जो गीता
के श्लोक पढ़
रहे हैं, उठकर
मुझे गले लगा
लेते हैं।
धीरे—धीरे
मुझे ओशो के
शब्द याद आते
हैं, ज्योति
अपना खयाल
रखना', और
मैं शांत हो
जाती हूं।
अप्रिशन
थियेटर में
बैठे हुए मुझे
पूरा
घटनाक्रम याद आता
है :
1
किस प्रकार
ओशो भगवती से
माउंट आबू के
शिविर में
चलने का आग्रह
करते हैं;
2 किस
प्रकार वह रेल
दुर्घटना से
बच जाती है और अपनी
मृत्यु की
तैयारी कि लिए
उसे चार महीने
मिल जाते हैं;
3
ऑप्रेशन
से पहले उससे
मिलने पर कैसे
ओशो उस पर
अपनी ऊर्जा उंडेलते
हैं। मुझे पूरा
विश्वास है कि
ओशो उसकी
आसन्न मृत्यु
के बारे में
अच्छी तरह? जानते
थे, जो कि
उनके द्वारा
भगवती को लिखे
अंतिम पत्र से
भी स्पष्ट हो
जाता है।
प्यारे
ओशो,
आपकी
करुणा अपार है।
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