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रविवार, 6 मार्च 2016

भावना के भोज पत्र--(पत्र पाथय--30)

पत्र पाथय30

निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
                                                जबलपुर (म. प्र.)
आर्चाय रजनीश
दर्शन विभाग
महाकोशल महाविद्यालय
पूज्‍य मां,
 प्रणाम! आपका पत्र मिला। खुशी हुई। इस बीच आप पर बहुत काम रहा मैं जानता हूं कि सेवा का सब काम आपकी क्षमता से सदा कम है इसलिए निश्‍चित हूं।
प्रेम काम को आनंद में परिणत कर देता है। जिस कार्य को, जिस सेवा को आपने अपने हाथ में लिया है उसमें आप अपने को जितना बिठा देंगी उतनी ही उपलब्धि होगी। बीज जैसे अपने को खोकर वृक्ष में पा लेता है; वैसे ही व्यक्ति सेवा और प्रेम में अपने को खोकर विराट में पा लेता है।

खोना ही पाना है। अपने को सिकोड़े सुरक्षित रखना ही खो देना है। यह जीवन का विज्ञान है। यह विज्ञान बड़ा उल्टा है। साधारण गणित के यह एकदम विपरीत है। ईसा ने कहा है जो अपने को खोता है वही प्रभु को पा सकता है।
मेरी प्रार्थना यही है कि आप मिट जायें। इस तरह वह मिलेगा जिसे पाने को यह अवसर है।

पंचमढ़ी 10 को जाने को आप लिखी हैं। देशलहरा जी वहां पंचमढ़ी पहुंच रहे हैं? फिर आपके पास पारखजी तथा और जैन आने को हैं। यहां से मैं, क्रांति और संभवत: अरविंद सभी चलेंगे। जब भी ठीक समझें आप यहां आ जायें और यहां से हम चलें। संभव है कि डेरिया जी का ताराचंद भाई कोठारी भी वहां पहुंचे। देशलहरा जी के यहां कितने जनों की व्यवस्था हो सकेगी यह पता तो चलें अन्यथा फिर कोई व्यवस्था करनइ। होगी।

एक स्वप्न कल देखा हूं। बहुत आदेशपूर्ण था आप मिलेंगी तब बातें होंगी। उस स्वप्न में मुझे कहा गया है कि मैं आपके और अपने बीच मोह विकसित न होने दूं। वह दोनों की प्रगति में बाधा बन जायेगा। यह आदेश सामयिक है। भला लगा। अभी कोई डर तो न था पर मन की कोन कहे?
सबको मेरे विनम्र प्रणाम।
25 अप्रैल 1961
दोपहर रजनीश के प्रणाम

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