अध्याय—(तिहतरवां)
नारगोल
ध्यान शिविर
समाप्त हो
चुका है। चार
मित्र अपनी
कारों से बंबई
जाने के लिए
तैयार हैं।
बंबई तक कोई 6
से 7 घंटे
का सफर है।
ओशो भी कार से
बंबई जाने के
लिए राजी हो
गए हैं।
ये
सभी मित्र
चाहते हैं कि
ओशो उनकी कार
में चलें। जब
मैं ओशो को यह
बात बताती हूं
तो वे कहते
हैं,
यही
मुश्किल है।
मैं जिसकी भी
कार में
जाऊंगा, बाकी
तीन नाखुश हो
जाएंगे। इससे
अच्छा है कि
मैं गाड़ी से
ही चला जाता।’
वे फैसला
हमारे ऊपर ही
छोड़ देते हैं।
मैं
मित्रों से
कहती हूं, ‘हम यह देख
लेते हैं कि
ओशो को छ: घंटे
तक बेठने के
लिए कौन सी
कार सबसे
ज्यादा
आरामदेह होगी।’
हम सब एक
फिएट कार के
लिए सहमत हो
जाते हैं जो
कि बिलकुल नई है।
सुबह
7—00 बजे सभी
कारें चलने के
लिए तैयार हैं।
अपना टोस्ट और
चाय का नाश्ता
लेने के बाद, ओशो
अपने कमरे से
बाहर निकलते
हैं, हाथ
जोड़कर सबको
नमस्ते करते
हैं और उस कार
की पिछली सीट
पर बैठ जाते
हैं जो उनके
लिए चूनी गईं
है। वह मित्र
आगे की सीट पर
ड्राइवर के
साथ बैठ जाते
हैं। हम सभी
एक पंक्ति में
उन्हें विदा
देने के लिए
खड़े हुए हैं।
जैसे ही
ड्राइवर कार
स्टार्ट करता
है, ओशो
हाथ हिलाकर हम
सबको विदा
देने लगते हैं
और कछ ही
मिनटो में कार
हमारी नजरों
से ओझल हो
जाती है। हम
लोग दौड़कर बकि?
बची हुई तीन
कारों में
अपनी—अपनी जगह
ले लेते हैं।
मैं जिस कार
में बैठी हुई
हूं, उसे
जो मित्र चला
रहे हैं
उन्होंने ओशो
की कार तक
पहुंचने की
ठानी हुई है, इसलिए बहुत
तेजी से
ड्राइव कर रहे
हैं। रास्ते
में आने वाले
हर वाहन को वह
ओवरटेक करते
जा रहे हैं।
करीब
आधे घंटे बाद
दूर से मुझे दिरवाई
पड़ता है कि
कोई कार एक
पेड़ के नीचे
खड़ी है और ओशो
उसके पास ही
खड़े हैं। मैं
मित्र को कार
धीमी करके
रोकने के लिए
कहती हूं ताकि
पता लगाएं कि
क्या हो गया
है।
कुछ
ही मिनट में
हम वहां पहुंच
जाते हैं और
पता लगता है
कि कार में
खराबी आ गई है।
—ड्राइवर किसी
मेकेनिक को खोजने
गया है। मैं
अपनी सीट खाली
करके, ओशो को
इस कार में
बैठने के लिए
कहती हूं। वे
काफी थके हुए
लग रहे हैं।
चारों ओर काफी
धूल—धंवास है।
ओशो इस कार
में बैठने के
लिए राजी हो
जाते हैं और
मुझे अगली कार
में आने को
कहते हैं। यह
मित्र ओशो को
अपनी कार में
बिठाकर बहुत
प्रसन्न हो
जाते हैं।
मैं
सड़क के किनारे
खड़ी सैकड़ों
वाहनों को
गुजरते देखती
रहती हूं।
हमारी अगली
कार के
पहुंचने में
दस मिनट लगते हैं
जिसमें मैं
बैठ जाती हूं।
ये दस मिनट
मेरे लिए
अनंतकाल जैसे
रहे,
और मैं बहुत
थक जाती हूं।
मैं मित्रों
को बताती हूं
कि क्या हुआ था,
और हम सभी
सोचते हैं कि
ओशो के लिए
हमने गलत कार
चुन ली थी।
मैं इतनी थकी
हुई हूं कि आंखें
बंद करते ही
मुझे नींद आ
जाती है।
कार
अचानक एक झटके
से रुकती है
तो मेरी नींद
खुल जाती है।
मैं अपनी आंखों
पर विश्वास
नहीं कर पाती
जब मैं ओशो को
सड़क के किनारे
एक पेड के
नीचे खड़ा देखती
हूं। मैं अपनी
आंखें मल—मलकर
देखती हूं
लेकिन यह कोई
सपना नहीं है।
दूसरी कार भी
खराब हो गई है।
मैं फिर से
ओशो के लिए
अपनी सीट खाली
कर देती हूं।
अंतत:, ऐसे कारें
बदलते हुए हम
सभी बंबई
पहुंच जाते
हैं, जैसे कोई
खेल खेल रहे
हों।
शाम
को जब हम ओशो
से मिलते हैं, तो
एक मित्र
रास्ते में
कारों के खराब
होने के बारे
में बात करने
लगते हैं। ओशो
कहते हैं, बेचारी
कारों को दोष
मत दो। यह सब
मुझे अपनी—अपनी
कारों में
बिठाने की
तुम्हारी
इच्छा के कारण
हुआ। मेरे साथ,
तुम्हें इस
बात का बहुत ख्याल
रखना पड़ेगा कि
तुम क्या
इच्छा कर रहे
हो।’
फिर
उन्होंने
हमें उस
व्यक्ति की
कहानी सुनाई
जो कल्पवृक्ष
के नीचे बैठा
था,
और उसे पता
नहीं था कि
कल्पवृक्ष है।
जब उसे भूख
लगी तो वह
स्वादिष्ट
भोजन की कामना
करने लगा, और
उसी समय
स्वादिष्ट.
भोजन उसके
सामने प्रकट हो
गया। उसे इतनी
भूख लगी हुई
है कि वह हवा
में से भोजन
प्रकट होने की
बात सोचता भी
नहीं। उसे
नींद आती है
तो वह आरामदेह
बिस्तर की कामना
करता है और वह
भी झट से
प्रकट हो जाता
है। वह बिस्तर
पर लेट जाता
है और सोचता
है कि यह हो क्या
रहा है।
अंधेरा घिर
रहा है और जगल
में अकेले उसे
डर लगने लगता
है कि कहीं
कोई शेर आकर
उसे मार न दे।
उसकी अंतिम
इच्छा भी पूरी
हो जाती है।
एक शेर प्रकट
होकर उसे मार
डालता है।
ओशो
से सुंदर
कहानी और कोई
नहीं कह सकता।
उनके हाथों के
इशारों को
देखते हुए, हम
सब इस कहानी
का बहुत मजा
लेते हैं और
बहुत हंसते
हैं।
फिर
वे कहते हैं, यह
एक पारलौकिक
कहानी है
लेकिन इसका
बड़ा गहरा अर्थ
है। तो जब तुम
मेरे आस—पास
हो तो अपनी
इच्छाओं के
बारे में सचेत
रहो।’
💗🙏🙏🙏💗😍😂
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