अध्याय—(चौहत्ररवां)
ओशो
जब बुडलैंड्स, बंबई
में हैं तो
मनाली में
सबसे पहले संन्यास
लेने वाले
संन्यासियों
का ग्रुप लगभग
रोज ही उनसे मिलने
के लिए जा रहा
है।
आज
मैं मां योग
भगवती के साथ
ओशो से मिलने
जाती हूं और
वे हमसे पूछते
हैं कि क्या
हम लोग माउंट
आबू में होने
वाले अगले
ध्यान शिविर
में आ रहे हैं।’ मैं
उनसे कहती हूं
'ओशो, मैं
इस शिविर में
नहीं आ रही
हूं। मैं बहुत
थकी हुई हूं
और मुझे थोड़े
आराम की जरूरत
है।’ वे
हंसते हैं और
फिर उनकी
नजरें भगवती
की ओर उठती
हैं।
ओशो जब
उससे पूछते
हैं तो वह भी
ना ही कहती है
क्योंकि उसके
भाई के बच्चों
की परीक्षाएं
आने वाली हैं
और उसे उन्हें
पढ़ाना है।
मुझे
आश्चर्य होता
है,
जब ओशो उससे
कहते हैं कि
यदि वह मर जाए
तो उन बच्चों
की पढ़ाई का
क्या होगा।
उसे ऐसी
व्यर्थ की
जिम्मेदारियां
नहीं लेनी चाहिए।
भगवती
को उलझन में
देख ओशो उससे
कहते हैं कि जैसा
वे कह रहे हैं
वह वैसा ही
करे। ऐसा कहते
हुए वे उठ खड़े
होते हैं और
बाथरूम में
चले जाते हैं।
कोई और उपाय न
देख भगवती
शिविर में जाने
का निर्णय ले
लेती है और हम
दोनों ओशो के
कमरे से बाहर
निकल आती हैं।
हम दोनों ही
हैरान है।
मैं
हैरान हूं कि
ओशो ने मुझसे
शिविर में
चलने का आग्रह
क्यों नहीं
किया। भगवती
भी हैरान है
कि ओशो ने उसे
शिविर में चलने
का इस तरह
आग्रह क्यों
किया।
साधारणता ओशो
ऐसा नहीं करते।
वे सदा लोगों
को अपने आप
निर्णय लेने
देते हैं।
अधिक से अधिक
वे पूछे जाने
पर सुझाव ही
देते हैं कि
उन्हें क्या
सही लगता है।
माउंट
आबू में पांच
दिन का ध्यान
शिविर है और
ओशो जब वहां के
लिए चले जाते
हैं तो मुझे
थोड़ा आराम—सा
लगता है। जब
वे बंबई में
होते हैं तो
मैं अपने घर
से सुबह 7—30 बजे
निकलती हूं और
रात 11—30 बजे
ही घर वापस आ
पाती हूं। कई
बार मैं सोचती
हूं कि शाम के
प्रवचन में न
जाऊं लेकिन
जैसे ही शाम
होतीं है कोई
अनजानी शक्ति
मुझे
बुडलैंड्स की
ओर खींचे लिए
जाती है। ओशो
किसी छुट्टी
में विश्वास
नहीं करते।
उनका प्रवचन
रोज ही होता
है। इन दिनों
मैं शाम को
खाली होती हूं
और मजे से
आराम करते हुए
भगवद्गीता पर
शुरू होने
वाली
प्रवचनमाला
के लिए स्वयं
को तैयार कर
रही हूं। यह
प्रवचनमाला
ओशो के बंबई
लौटते ही शुरू
होने वाली है।
मुझे
क्रॉस मैदान
में बुकस्टॉल
को संभालना है।
हम इस समय
मुश्किल से आठ
या दस लोग हैं
जो सक्रिय रूप
से ओशो के काम
में संलग्न
हैं और भगवती उनमें
से एक है।
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